Saturday, October 28, 2017

भज गोविंदम् - श्लोक संख्या-14

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.14 -
जटिलो मुण्डी लुंचितकेशः, काषायाम्बर-बहुकृतवेष: |
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढ़: उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः ||14||
अर्थात बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, भगवा वस्त्र और तरह-तरह के वेष, ये सब अपना पेट भरने के किये धारण किये जाते हैं | हे मोहित मनुष्य, तुम इन सब को देखते हुए भी क्यों अनदेखा कर रहे हो ?
       इस संसार का हर व्यक्ति चाहे वह दिखने में कैसा भी हो, चाहे वह किसी भी रंग का वस्त्र धारण करता हो, निरंतर कर्म करता रहता है | क्यों ? केवल रोजी रोटी कमाने के लिए | फिर भी पता नहीं क्यों हम सब कुछ जानकर भी अनजान बने रहते हैं |
         आदि गुरु शंकराचार्य जी का प्रथम शिष्य आज के जैसे कथित साधुओं और धर्मगुरुओं के ऊपर कटाक्ष करते हुए कह रहे हैं कि जिस किसी ने वेष बदला है, सिर का मुंडन करा लिया है अथवा विभिन्न प्रकार के वस्त्र धारण कर अपना वेष बदल लिया है, ऐसा वे अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए कर रहे हैं | ऐसा करना स्वयं के लिए सकाम कर्म करना ही है | इसका अर्थ यह हुआ है कि जैसे साधु का वेष धारण किये बाबा आज के युग में दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वैसे ही बाबा शंकराचार्य जी के काल में भी हुआ करते थे | अंतर केवल इतना है कि उस काल में ऐसे बाबा एक-दो हुआ करते थे और आज-कल ऐसे कथित साधु-बाबाओं की भरमार है | एक आदर्श साधु-संत का कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता हैं | नाटक बाज बाबा कर्म में संलग्न रहते हैं और धन और स्त्री से मोह उनका छूटता नहीं है | साधु के नाम पर वे कलंक हैं, जो धन कमाने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं | यही कारण है कि आज हमारा सनातन धर्म इन पाखंडी साधुओं के कारण बदनाम हो रहा है |
              कुछ लोग अपनी आजीविका के लिए ऐसा क्यों करते हैं ? यह एक गूढ़ प्रश्न है | शायद इस प्रकार की मानसिकता के लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि एक साधु का जीवन पेट भरने के लिए सबसे आसान जीवन है जबकि सत्य यह है कि एक साधु जैसा जीवन जीना, एक संत बनकर जीवन जीना सबसे कठिन है | एक संत को जीवन मुक्त होकर रहना सीखना होता है जिसके लिए उसे अथक प्रयास करने पड़ते हैं | हालाँकि देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन मुक्त होना बहुत सरल है | संसार को त्यागकर ही साधु और संत नहीं बना जा सकता | उसके लिए बड़ी कठिन राह चुननी पड़ती है और फिर उस राह पर चलना पड़ता है | मन से स्त्री, धन, मोह-माया आदि का सर्वस्व त्याग करना पड़ता है | केवल वेष बदलकर, सर के केश मुंडा कर साधु नहीं हुआ जा सकता बल्कि स्वयं के भीतर साधुत्व पैदा करना होता है, कामनाओं और कर्मों के प्रति अनासक्त होना पड़ता है | कबीर ऐसे ही कथित साधुओं पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि-
मुंड मुंडाए हरि मिले, तो हर कोई लेय मुंडाय |
बार-बार के मुंडते, भेड़ न वैकुण्ठ जाय ||
अर्थात अगर केवल मात्र सिर को मुंडा लेने से परमात्मा प्राप्त हो जाये तो ऐसा तो प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है | एक भेड़ को उसके जीवन में अनेकों बार केश विहीन किया जाता है, फिर उसे तो परमात्मा नहीं मिलते |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment