Saturday, October 7, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.7(कल से आगे)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.7(कल से आगे)
              बालक अपने मानसिक विकास के लिए खिलौनों से खेलता है | संसार की गतिविधियों में जाने से पहले वह उनके बारे में कुछ पूर्वाभ्यास करना चाहता है | उसे वह सब खेल के माध्यम से ही मिलता है | खिलौनों से खेलते हुए वह एक विद्यार्थी के रूप में अपने मानसिक विकास को गति देता है | जब उसका मानसिक विकास इस स्तर पर पहुँच जाता है कि वह संसार में कैसे जीना है, समझ सके, तब वह अपने यौवन काल की दहलीज पर पहुँच चूका होता है | उस समय उसका मन क्रीड़ा से हटकर विषय-भोग की तरफ आकर्षित होता है | यही वह समय है, जब उसको आध्यात्मिक चिंतन की तरफ लगाया जाना चाहिए | परन्तु हमारे यहाँ तो आध्यात्मिकता और भगवद् चिंतन के लिए सर्वश्रेष्ठ समय वृद्धावस्था को कहा गया है | मैं कहता हूँ कि ऐसा कहना अथवा मानना सरासर गलत है | यह सब उस आसक्ति और लोभ पूर्ण जीवन का प्रभाव है, जो कभी इनसे  मुक्त होने की कामना तक नहीं करता है |
          एक बार जब बाल्यावस्था से युवावस्था में मनुष्य का शरीर प्रवेश करता है, तब प्रकृति के गुणों के कारण उसके शरीर में विशेष हार्मोन्स बनने लगते हैं जो उसके शरीर के साथ-साथ स्वभाव में भी परिवर्तन ला देते हैं | इस समय अगर उसका सही रूप से मार्गदर्शन किया जाये, तो वह अपन जीवन समग्रता के साथ जी सकता है | उचित मार्गदर्शन के अभाव में वह विषय- भोगों में ही उलझ कर रह जायेगा | युवावस्था के कारण शरीर में हार्मोन्स अपना प्रभव दिखलाते हुए उसे इन्द्रियों का दास बन डालेंगे | फिर जीवन की अंतिम अवस्था में चिंता करने के अतिरिक्त वह कर भी क्या सकता है |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि -
अन्तकाले ज मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम |
यःप्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||गीता-8/5||
अर्थात जो पुरुष अन्तकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह मेरे ही साक्षात् स्वरुप को प्राप्त होता है , इसमें कुछ भी संशय नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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