Tuesday, October 10, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-7(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.7(समापन)-
          आपने देखा न कि सेठजी अपने घर में हो रहे झाड़ू के नुकसान की कितनी चिंता कर रहे हैं | एक अल्प नुकसान की जब इतनी अधिक चिंता कर रहे हैं, फिर तो चिंताओं का कभी अंत भी नहीं आना है | बुजुर्ग, जिसने जीवन भर विभिन्न प्रकार के भोग भोगें हैं, उनके परिणाम स्वरूप जो विभिन्न प्रकार की आसक्ति और ममता उनके भीतर स्थाई रूप से स्थान बना चुकी है, वे उसे कभी भी मुक्त नहीं होने देगी | ममता उसे अपने परिवारजनों के लालन पालन की चिंता में डाले रखती है | धन के प्रति आसक्ति धन कम हो जाने की चिंता से उसे सदैव ग्रसित रखती है | एक चिंता हो तो वर्णन किया जा सकता है, यहाँ तो इस उम्र में सभी क्षेत्रों की चिंताएं है | संसार की चिंता उसे सदैव रहती है परन्तु वह वर्तमान जीवन में इस बात की चिंता कभी भी नहीं करता कि उसका भावी जीवन कैसे अच्छा और सुन्दर हो सकता है ? व्यक्ति का शरीर जब धीरे-धीरे जर्जर होने लगता है, कम से कम तब तो उसे न तो परिवार की तथा न ही किसी अन्य बात की चिंता करनी चाहिए | चिंता होनी चाहिए एक मात्र परमात्मा के चिंतन की | परमात्मा का चिंतन ही उसे संसार की इन चिंताओं के बंधन से मुक्त कर सकता है |
               हरिः शरणम् आश्रम, बेलड़ा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि आपका कर्तव्य अपने बाल बच्चों की परवरिश तक ही सीमित होना चाहिए | उसके बाद की पीढ़ी पर केवल आप अपना आशीर्वाद बनाये रखें | इनकी चिंता करना आपका दायित्व नहीं है | हम आज इसके ठीक विपरीत करते हैं | अपने पुत्र-पुत्री व्यवस्थित हो गए हैं, वे सब अपने कार्य में व्यस्त हैं और हम है कि उनके बच्चों तक की चिंता किये जा रहे हैं | चिंता मुक्त होना आपको है, कोई दूसरा आकर इस चिंता से आपको मुक्त नहीं कर सकता | इस चिंता से मुक्त होने का एक ही मार्ग है, अपने कर्तव्य कर्म के दायित्व से मुक्त होते ही परमात्मा के चिंतन में लग जाएँ | व्यर्थ की चिंताओं में जो फंस जाता है, वह जीवन भर परमात्मा के भजन करने के नाम पर केवल स्वयं को ही धोखा देता रहेगा, अपने ह्रदय से भजन नहीं कर सकता | आवश्यकता है, परमात्मा को ह्रदय से भजने की, दिखावा नहीं करना है | चिन्ता-युक्त बुजुर्ग भजन का दिखावा भर कर सकता है, वास्तविक भजन तो चिंता-मुक्त होकर ही किया जा सकता है |
 इसलिए शंकराचार्य महाराज का यह कथन सत्य है कि -
बालस्तावत्क्रीड़ासक्तः, तरुणस्तावत्तरुणीसक्तः |
वृद्धस्तावत्चिन्तामग्नः, पारेब्रह्मणिकोSपि न लग्नः ||7||
अर्थात सारे बालक क्रीड़ा में व्यस्त हैं और नौजवान अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने में समय बिता रहे हैं | बुजुर्ग केवल चिंता करने में व्यस्त हैं | किसी के पास भी उस परमात्मा को स्मरण करने का वक्त नहीं है |
|| भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्, गोविन्दम् भज मूढमते ||
कल श्लोक सं.8
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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