Monday, October 30, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-15

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-15
अड़गं गलितं पलितं मुण्डं दशन विहीनं जातंतुण्डम् |
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुंचतिआशापिण्डम् ||15||
अर्थात क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दंत-विहीन मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश में बंधा रहता है |
 जिस व्यक्ति का शरीर जवाब दे चूका है, जिसके शरीर में प्राण सिर्फ नाम मात्र ही बचे हैं, जो व्यक्ति बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता, वह व्यक्ति भी स्वयं को सांसारिक मोह माया से छुड़ाने में असमर्थ रहा है |
          शंकराचार्य जी महाराज के एक अन्य शिष्य कह रहे हैं कि जर्जर शरीर हो जाने के बाद भी मनुष्य का मुश्किल है इस संसार की मोह-माया से निकल पाना | जीवन भर जो कुछ भी कार्य आप करते हैं, उस कार्य के आप इतने अधिक अभ्यस्त हो जाते हैं कि अंतिम समय तक आप उसको अपने मन तक से नहीं निकाल पाते | मनुष्य का शरीर पाँच तत्वों के योग से बना है | सभी तत्व जड़ प्रकृति के हैं | इनके योग का एक दिन वियोग होना निश्चित है | इस कारण से शरीर का भी एक न एक दिन क्षय होना ही है | जब इन पाँचों तत्वों के योग में क्षय प्रारम्भ होता है, तब यह शरीर भी जर्जर होने लगता है | उसको चलने के लिए भी किसी न किसी सहारे की आवश्यकता अवश्य ही पड़ती है | जर्जर शरीर बिना किसी सहारे के अपना दैनिक कार्य तक नहीं कर सकता |
                मनुष्य का शरीर पाँच तत्वों के योग से आकृति लेता है परन्तु उसमें प्राणों का संचार होने से ही उसमें जीवन का प्रारम्भ होता है | जीवन के प्रारम्भ से ही इन प्राणों के कारण ही मनुष्य कर्म करता है, अपनी कामनाओं को  पूरा करने का प्रयास करता है | प्राण के बिना यह शरीर मात्र एक शव बनकर रह जाता है, जिसके फिर बने रहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता | जर्जर होती देह को अनुभव कर उसमें स्थित प्राण भी अपने आपको उस शरीर से अलग करने की तैयारी कर लेते हैं | प्राण शक्ति जब कमजोर होने लगती है, तब भी व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षाओं से अपने आप को दूर नहीं कर पाता है |

          मनुष्य के जीवन का प्रारम्भ ही अपनी पूर्वजन्म की अधूरी रही कामनाओं को पूरा करने के लिए होता है | जब इस जीवन में वे कामनाएं पूरा होने को होती है, तभी नई कामनाएं जन्म लेने लगती है | ये नयी कामनाएं जीवनपर्यंत पूरी नहीं हो पाते और मनुष्य उन्हीं कामनाओं की मोह-माया से बंधकर रह जाता है | इसी को सांसारिक मोह माया कहते हैं, जीवन के अंतिम समय तक जिससे छूटना बड़ा मुश्किल है |
क्रमशः 
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

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