Thursday, October 26, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.13(कल से आगे-2)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.13 (कल से आगे-2) – 
       काम और अर्थ, केवल पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार इस जन्म में उपलब्ध हुए हैं | तो फिर इस जन्म में क्या हमें स्त्री और धन को पाने के लिए कर्म नहीं करने चाहिए ? मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि बिलकुल नहीं करने चाहिए | हो सकता है, आप मेरी इस बात से असहमत हों परन्तु मैं निश्चिन्त हूँ क्योंकि मुझे अपने ऋषियों और मुनियों के द्वारा कही गयी प्रत्येक बात पर पूर्ण विश्वास है, जो यह भी कह गए हैं कि काम और अर्थ केवल प्रारब्ध के अधीन हैं | अर्जुन को तेल भरे कड़ाह में उसके ऊपर घूमती मछली के प्रतिबिम्ब को देखकर उसकी आँख पर निशाना साधना था | उसने यह कार्य कर स्वयंवर में द्रोपदी का वरण कर लिया | क्या अर्जुन ने अपने वर्तमान जीवन के पुरुषार्थ से ऐसा संभव कर दिखा सकता था ? मैं कहता हूँ, नहीं | अगर अर्जुन केवल अपने वर्तमान जीवन के पुरुषार्थ के कारण ही धनुर्विद्या में पारंगत हुआ होता और सटीक निशाना केवल स्वयं के बल से ही लगा सकता तो फिर वह और उसका गांडीव, दोनों ही भीलों के समक्ष परास्त कैसे हो गए थे ? द्रोपदी का उसके जीवन में आना पूर्वजन्म के किन्हीं कर्मों के अनुसार पहले से ही निश्चित था | अगर उसके हाथ में ही सब कुछ करना होता तो महाभारत जैसे युद्ध का विजेता लुटेरों के समक्ष परास्त कैसे हो सकता था ? उसके जीवन-काल में ही हुए इस युद्ध में भी उसे अपने शत्रु को परास्त कर देना चाहिए था | परन्तु उस युद्ध में जैसा कि आप जानते ही हैं, भील (लुटेरे) जीत गए थे |
           किसी भी प्राणी के शरीर में प्रत्येक क्रिया स्वतः ही होती है और उन क्रियाओं का आधार पूर्वजन्म के कर्म होते हैं | ये क्रियाएं स्वतः ही होने लगती हैं, वे कर्म तो होती हैं परन्तु ऐसे कर्मों को करने में व्यक्ति की कोई भूमिका नहीं होती | बस, यही कहना चाहता हूँ मैं | हमारा अज्ञान ही है जो स्वतः होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा किया जाने वाला कर्म मान लेते हैं | यह कर्ता-भाव ही हमें क्रियाओं के प्रति आसक्त कर देता है और उस आसक्ति से उत्पन्न सकाम कर्म के भाव से जो क्रियाएं हम करने लगते है, वास्तव में वे कर्म हमारे द्वारा ही किये जाते हैं | ये कर्म ही हमारा प्रारब्ध बनकर नए जीवन में स्वतः ही क्रियाएं प्रारम्भ कराते हैं | अतः स्त्री और धन के लिए आसक्ति भाव से किये गए कर्म जब निष्फल होते है, तब हमारे मन में चिंता उत्पन्न होती है और हम जीवन भर उनसे घिरे रहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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