भज गोविन्दम् –
श्लोक सं.8(कल से आगे)-
इस श्लोक में तीसरा और अंतिम प्रश्न है
कि इस क्षण भंगुर और विचित्र संसार में हमारा अस्तित्व क्या है ? सचमुच में जिसको
हम स्वयं का होना मान रहे हैं, उस भौतिक शरीर तक का कोई अस्तित्व नहीं है | जब
तत्व, असत के साथ होकर अपने को असत होना मान लेता है, उसी को हम अपना अस्तित्व
होना मान लेते हैं | वास्तव में अस्तित्व है शरीर में स्थित सत का, तत्व का और हम अपना
अस्तित्व मान रहे हैं, इस शरीर के होने को | गीता कहती है, ”नासतो विद्यते भावो न
भावो विद्यते सत” अर्थात असत की तो सत्ता नहीं है और सत का अभाव नहीं है | शंकराचार्य
महाराज इसी बात को स्पष्ट करने के लिए इस प्रश्न के माध्यम से स्पष्ट कर रहे हैं
कि यह संसार क्षण भंगुर है, अतः हमारे शरीर का भी क्षण भंगुर होना निश्चित है |
फिर भी हम इस शरीर को ही अपना होना मान रहे हैं, तो यह इस संसार की विचित्रता ही
हुई न | इसलिए इस संसार को क्षण भंगुर और विचित्र कहा गया है | हमारा अस्तित्व
हमारे इस भौतिक शरीर के भीतर उपस्थित उस परमात्म-तत्व के कारण है, न कि इस देह के
कारण | जब हमें यह अनुभव हो जायेगा तब हमें स्पष्ट हो जायेगा कि हमारे इस शरीर का
जिसे हम अपना होना मान रहे है, इस क्षण भंगुर और विचित्र संसार में कोई अस्तित्व
नहीं है | जो स्वयं विनाश शील है, भला उसका और उसके आश्रय रहने वाले का भी कहीं कोई
अस्तित्व हो सकता है |
यह स्पष्ट है कि अस्तित्व एक
परमात्मा का ही है अन्य किसी का नहीं | जो इस ब्रह्माण्ड के पूर्व भी था और इसके
समाप्त होने के बाद भी रहेगा | वह शाश्वत है, अनादि है | सब कुछ हमारे मोह के कारण
है, जो हमें इस असत संसार को भी सत होने का भ्रम दे रहा है | जब आप इस बात पर
ध्यान देंगे कि यहाँ न कोई सच्चा साथी है, न कोई पुत्र है और न ही क्षण भंगुर
संसार में हमारा कोई अस्तित्व है, तब स्पष्ट हो जायेगा कि हम स्वयं भी परमात्मा के
कारण है और वही हमारा वास्तविक स्वरूप है | प्रकृति हमारा स्वभाव है, जो कि परिवर्तनशील
है, परमात्मा हमारा स्वरूप है जो कि अविनाशी और अपरिवर्तनशील है | इसलिए
शंकराचार्य जी ने कहा है कि-
का ते कांता
कस्तेपुत्र, संसारोSयं अतीव विचित्रः |
कस्य त्वं कः कुत
अयातः तत्वंचिन्तययदिदंभ्रातः ||8||
अर्थात कौन है हमारा
सच्चा साथी ? हमारा पुत्र कौन है ? इस क्षण भंगुर एवं विचित्र संसार में हमारा
अस्तित्व क्या है ? यह ध्यान देने की बात है |
|| भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||
कल श्लोक सं. 9
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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