भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.7 -
बालस्तावत्क्रीड़ासक्तः,
तरुणस्तावत्तरुणीसक्तः |
वृद्धस्तावत्चिन्तामग्नः,
पारेब्रह्मणिकोSपि न लग्नः ||7||
अर्थात सारे बालक
क्रीड़ा में व्यस्त हैं और नौजवान अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने में समय बिता
रहे हैं | बुजुर्ग केवल चिंता करने में व्यस्त हैं | किसी के पास भी उस परमात्मा
को स्मरण करने का वक्त नहीं है |
बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है आदि गुरु
ने | मनुष्य को अपना शतकीय जीवन सदैव ही अल्प लगता है | उसका कारण है, उसका वय अनुसार
स्वभाव का बदलते जाना | हमारी रुचि उम्र के
अनुसार सदैव बदलती रहती है | जब बाल्यावस्था होती है तब एक बच्चे की रुचि खेलकूद
के प्रति सर्वाधिक होती है | संसार के प्रति आसक्ति मन में इसी वय में लेने लगती
है | वह बात और है कि बाल्यावस्था में बच्चे का संसार अपने खिलौनों तक में ही
सीमित रहता है | किसी भी खिलौने के प्रति आसक्ति उसे उसी खिलौने को प्राप्त करने
की कामना को बढ़ा देती है | हमारी प्रारम्भिक शिक्षा के समय पाठ्यक्रम में एक कविता
हुआ करती थी – “मैं तो वही खिलौना लूँगा, मचल गया दीना का लाल”| पूरी कविता तो अब
मेरी स्मृति में नहीं है, परन्तु यह कविता कहती है कि दीना नाम की एक मां का बच्चा
सोने से निर्मित खिलौने को प्राप्त करने के लिए मचल उठता है | दूसरी तरफ उस राज्य
का राजकुमार दीना के बच्चे के मिट्टी के खिलौने को लिए मचल जाता है | दीना गरीब
है, उसका बच्चा स्वर्ण निर्मित खिलौना चाहता है | राजकुमार शाही घराने का अमीरजादा
है, उसे मिट्टी का खिलौना पसंद है | परन्तु दोनों की कामना में एक बात समान है |
अपने पसंद के खिलौने के प्रति आसक्ति |
बाल्यावस्था का खेल केवल खिलौनों से
खेलने तक सिमटा है जबकि युवावस्था में खेल इन्द्रियों से खेला जाता है | आसक्ति
दोनों ही अवस्थाओं में है | बाल्यावस्था में निर्जीव खिलोनों के प्रति और
युवावस्था में सजीव खिलौनों (भौतिक शरीर) के प्रति | दोनों अवस्थाओं में आसक्ति
समान है | ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात यही है |आसक्ति आपके ऊपर इस तरह
प्रभावी रहती है कि आप अपने इस स्व-निर्मित संसार में उलझ कर रह जाते है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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