भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.9(कल से आगे)-
इस संसार में आकर क्यों बदल जाता है,
हमारा स्वभाव और सत्संग से हमें हमारे स्वरूप का परिचय कैसे हो जाता है ? आइये ! यह जानने का प्रयास करते हैं | स्वभाव बनता है, हमारे
चारों और उपस्थित वातावरण से | वातावरण परिवर्तित करना मनुष्य के स्वयं के हाथ में
है | आप एक शेर है, एक भेड़ नहीं | यह एक शेर को तभी समझ में आ सकता है, जब उसे
किसी अन्य शेर का सानिध्य प्राप्त हो | जिसको ऐसा सानिध्य नहीं मिलता वह शेर होते
हुए भी जीवन भर एक भेड़ ही बना रहता है | हम परमात्मा के अंश है परन्तु भौतिक संसार
में आकर आसक्ति, मोह, ममता आदि के जाल में फंसकर बंधनों में जकड़े गए हैं | यह बंधन
व्यक्ति को परमात्मा से दूर कर स्वयं के एक शरीर होने का आभास देता है | जबकि वास्तविकता
यह है कि हम शरीर नहीं है | इस बात का ज्ञान होने के लिए सत्संग मिलना आवश्यक है |
आदि शंकराचार्य यही बात इस श्लोक
में कह रहे हैं | जब हम संत- महात्माओं के साथ उठते बैठते हैं तब हमें यह ज्ञान हो
जाता है कि इतने दिनों तक हम झूठ ही संसार के बंधन में बंधे हुए थे | हमारा
वास्तविक स्वरूप परमात्मा का है | सज्जन पुरुषों के संग से व्यक्ति धीरे-धीरे
संसार से असंग होने लगता है | संसार का संग दुखदायी होता है जबकि परमात्मा का संग
आनंद प्रदान करता है | सत्संग के प्रभाव से व्यक्ति मुक्त होने लगता है और उसे एक
प्रकार के सुख का अनुभव होने लगता है | ज्योंही वह संसार के समस्त बंधनों से छूटता
है, आनंद को उपलब्ध हो जाता है, परमात्मा हो जाता है | हमारा स्वरूप सांसारिक नहीं
है, बल्कि हम स्वयं परमात्म स्वरूप हैं | यही परम ज्ञान है और परम-ज्ञान तभी प्राप्त
हो सकता है जब हमें सत्संग मिले | जो स्वयं अपने स्वरूप को समझ चुका है, स्वयं को
पहचान गया है, केवल ऐसे संत का संग ही हमें संसार से असंग कर सकता है |
आध्यात्मिकता के मार्ग पर बढ़ने का प्रथम कदम सत्संग ही है | अतः सत्संग को महत्त्व
देते हुए सदैव कुसंग करने से बचें |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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