भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.12(समापन)-
जन्म मृत्यु, मृत्यु जन्म, यह एक प्रकार
का इस संसार में आवागमन है | हम आते हैं इस संसार में, सभी अवस्थाओं को एक –एक कर भोगते
हैं | कुछ पूर्वजन्म में शेष रही कामनाओं को इस जन्म में पूरा करने का प्रयास करते
है | पूरी होती भी हैं और नहीं भी होती क्योंकि एक कामना के पूरा होते ही फिर से एक
नई कामना पैदा हो जाती है | ये अनंत कामनाएं ही इस जीवन चक्र से मुक्त न हो पाने
का मुख्य कारण है | हमें यह समझना होगा कि यह संसार जिसमें हम बार–बार आ जा रहे
है, माया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इस माया के प्रति अनुरक्ति रखना अनुचित है |
हम इस असत् माया को ही सत समझ बैठते है, इसी समझ को मोह में पड़ना कहते हैं | मोह
हमें इस संसार के साथ चलने को विवश कर देता है | इस माया-मोह के बंधन से छूटना ही
मुक्त हो जाना है | यह बंधन हमारे द्वारा माया को अर्थात हमारे द्वारा भ्रम को ही
सत्य समझ लेने के कारण पैदा होता है, अन्य कोई कारण नहीं है | इससे स्पष्ट होता है
कि संसार के चक्र में हम स्वयं ही जानबूझकर फंसे हुए हैं |
इस प्रकार स्वयं के ही बंधे होने के
बंधन से मुक्त होने का एक ही उपाय है, वह है वास्तविकता को स्वीकार करना | हम सब
समय के चक्र से, संसार के चक्र से तभी मुक्त हो सकते हैं जब कालातीत हो जाएँ | इस
संसार और समय से परे चले जाएँ | संसार से परे जाने का अर्थ कदापि भी यह नहीं है कि
हम अपना सब कुछ त्यागकर जंगल में भाग जाएँ | जहाँ पर भी आप भाग कर जायेंगे, आपके
भीतर आपका यह संसार पुनः प्रकट हो ही जायेगा | भगाना ही है तो इस मोह को भगाइए | न
तो संसार में आसक्त हो और न ही विरक्त | मध्य में आकर ठहर जाइये | आसक्ति और
विरक्ति का मध्य है, अनासक्ति | अनासक्त भाव ही हमें संसार के बन्धनों से मुक्त कर
सकता है | संसार में अनासक्त होकर एक गोविन्द को भजना ही हमें मुक्त कर सकता है |
अनासक्त होना और गोविन्द को भजना मोह माया में फंसे रहने के कारण असंभव प्रतीत
होता है | विडम्बना यही है कि हम स्वयं ही मोह माया से मुक्त नहीं होना चाहते |
इसीलिए शंकराचार्य महाराज को कहना पड़ता है कि-
दिनमपि रजनी सायं
प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायतः |
कालः क्रीडतिगच्छत्यायु:,
तदपि न मुंचतिआशावायु: ||12||
अर्थात दिन और रात,
शाम और सुबह सर्दी और बसन्त आदि तो बार-बार आते-जाते रहते हैं, काल की इस क्रीड़ा
के साथ जीवन नष्ट होता रहता है परन्तु मनुष्य की इच्छाओं का अंत कभी नहीं होता है |
समय का बीतना और ऋतुओं का बदलना सांसारिक
नियम है | कोई भी व्यक्ति अमर नहीं है | मृत्यु के सामने हर किसी को झुकना पड़ता है
| परन्तु हम मोह माया के बंधनों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते हैं |
कल श्लोक सं. 13
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरि: शरणम् ||
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