भज गोविन्दम् –श्लोक
सं.-10 -
वयसिगतेकःकामविकारः
शुष्के नीरे कःकासारः|
क्षीणेवित्तेकः
परिवारोज्ञातेतत्त्वेकः संसारः ||10||
अर्थात यदि हमारा
शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, तो हमें सुख की प्राप्ति नहीं होगी | वह ताल, ताल
नहीं रहता यदि उसमें जल नहीं हो | जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर
जाता है, उसी प्रकार ज्ञान की प्राप्ति होते ही हम इस विचित्र संसार के बंधनों से
मुक्त हो जाते हैं |
भज गोविन्दम् के पिछले श्लोक में संसार
के बंधनों से मुक्त होने की बात शंकराचार्य महाराज कह रहे थे | संसार के बंधनों से
मुक्त होने पर ही व्यक्ति को सुख की प्राप्ति होती है | इस श्लोक में वे कह रहे
हैं कि अगर हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है तो हम सुख प्राप्त नहीं कर सकते
अर्थात् संसार के बंधन से मुक्त होने के लिए शरीर और मस्तिष्क का स्वस्थ होना
आवश्यक है | हमारा यह भौतिक शरीर ही हमारे लिए संसार के बंधन पैदा करने का मुख्य
कारण बनता है | इस शरीर में अवस्थित मस्तिष्क में बुद्धि निवास करती है | बुद्धि
कहती है कि इस संसार में जो भी कार्य करना है अथवा होता है, वह इस शरीर के कारण ही
होना संभव होता है | यह बात शत प्रतिशत सत्य भी है | बुद्धि जब संसार के साथ हो
जाती है तब वह व्यक्ति को उसके साथ बाँध देती है | यह बुद्धि के रुग्ण हो जाने का
परिचायक है | रुग्ण बुद्धि शरीर को भी रुग्ण बना देती है | इसलिए शरीर और मस्तिष्क
दोनों का स्वस्थ होना आवश्यक है, सुख प्राप्त करने के लिए |
हमारा मस्तिष्क जब सांसारिकता में
रम जाता है, तब वह परमात्मा से दूर होता चला जाता है | सत्संग के प्रभाव से यह
परिवर्तित होकर जब परमात्मा की और उन्मुख हो जाता है, तब वह संसार के बंधनों से
छूट जाता है | जिस प्रकार बिना जल के तालाब, तालाब नहीं रह जाता है, वैसे ही सत्संग
के द्वारा ज्ञान को उपलब्ध हो जाने पर संसार नहीं रहता | हमारा धन हमारे परिवार को
एक साथ बांधे रखता है | ज्योंही धन समाप्त हो चलता है, परिवार भी बिखरने लगता है |
शंकराचार्य महाराज कह रहे हैं कि इस बात का मनुष्य को ज्ञान हो जाने पर वह स्वयं
को संसार से अलग कर मुक्त हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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