भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.14(समापन)-
जब वास्तविक साधु-संतों का जीवन
आनंदमय दिखाई देता है तो एक साधारण व्यक्ति को वह बड़ा ही आसान और सरल जीवन प्रतीत
होता है | मानव जीवन में जब उसको जीविकोपार्जन में कठिनाई आती है, तब वह इस जीवन
से पलायन कर अपना वेष बदल लेता है, और बाहर से एक साधु दिखाई पड़ता है | वास्तव में
वह भीतर से साधु न होकर एक भगौड़ा होता है | अगर उसकी बुद्धि तीक्ष्ण हुई तो वह इस
वेष को कर्मों को करते हुए धन प्राप्ति का साधन बना लेता है | धीरे-धीरे इस मार्ग
पर चलते हुए वह धनार्जन के साथ-साथ धन का संचय कर अपने साम्राज्य का निर्माण करता
रहता है | जब धन आता है, तो उसके साथ काम भी आएगा | अर्थ और काम दोनों का आपस में
गहरा सम्बन्ध है | दोनों ही पूर्वजन्म के कर्मों से जुड़े हुए है | अतः दोनों का साथ-साथ
होना और रहना संभव बन जाता है | इस प्रकार बढ़ते हुए साम्राज्य को देखकर एक साधारण
व्यक्ति, जो कि अभी तक काम और अर्थ को प्राप्त कर पाने में असफल रहा है, प्रभावित
हुए बिना नहीं रह सकता | वह यह समझता है कि यह साधु-बाबा मेरा भी कल्याण कर सकता
है | उसका कल्याण से अभिप्राय काम-अर्थ की प्राप्ति होता है, परमात्मा की प्राप्ति
नहीं | यही कारण है कि आज के कथित साधु-संतों के पास उन्हीं लोगों का जमावड़ा हो जाता
है, जो अर्थ और काम के प्रति अपने भीतर आसक्ति पाले हुए हैं |
एक बुद्धिमान व्यक्ति सब कुछ जानता है
फिर भी वह जानकर भी अनजान बना रहता है | इसके भी दो कारण हैं | प्रथम तो ऐसे साधु-संत
धर्म की आड़ लेकर अपना साम्राज्य विकसित करते है, जिस कारण से व्यक्ति इस भय से
उसके विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकता क्योंकि वह स्वयं धर्म-विरोधी नहीं दिखना चाहता |
दूसरा कारण यह है कि हमारे कहीं भीतर भी वही कामनाएं और इच्छाएं पल रही होती है,
जिनको पूरा करने का उपाय हमें उस कथित साधु के पास होना प्रतीत होता है | वास्तव
में हमें अगर वास्तविक ज्ञान की तलाश होती, परमात्मा को प्राप्त करने की वास्तविक प्यास
होती तो हम ऐसे कथित साधुओं के पास कभी भी नहीं जाते | इसीलिए शंकराचार्य जी के इस
शिष्य का यह कहना एकदम सत्य है कि -
जटिलो मुण्डी लुंचितकेशः,
काषायाम्बर-बहुकृतवेष: |
पश्यन्नपि च न
पश्यति मूढ़: उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः ||14||
अर्थात बड़ी जटाएं,
केश रहित सिर, भगवा वस्त्र और तरह-तरह के वेष, ये सब अपना पेट भरने के किये धारण
किये जाते हैं | हे मोहित मनुष्य, तुम इन सब को देखते हुए भी क्यों अनदेखा कर रहे
हो ?
इस
संसार का हर व्यक्ति चाहे वह दिखने में कैसा भी हो, चाहे वह किसी भी रंग का वस्त्र
धारण करता हो, निरंतर कर्म करता रहता है | क्यों ? केवल रोजी रोटी कमाने के लिए |
फिर भी पता नहीं क्यों हम सब कुछ जानकर भी अनजान बने रहते हैं |
“|| भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं-15
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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