Tuesday, October 24, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-13

भज गोविन्दम् – श्लोक सं-13
का ते कान्ता धन गत चिन्ता वातुल, किं तव नास्ति नियन्ता |
त्रिजगति सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ||13||
अर्थात तुम्हें अपनी पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है ? क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है ? तीनों लोकों में केवल सज्जनों का संग ही भवसागर से पार जाने की नौका है |
        सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बंधनों में फंसकर एवं व्यर्थ की चिंता करके हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा | क्यों हम सदैव अपने आपको इन चिंताओं से घेरे रखते हैं ? क्यों हम महात्माओं से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए हुए मार्ग पर नहीं चलते ? संत महात्माओं से जुड़ कर अथवा उनके द्वारा दिए गए उपदेशों का पालन कर के ही हम सांसारिक बंधनों से एवं व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं |
          जिस दृश्य को देखकर शंकराचार्यजी महाराज द्वारा भज गोविन्दम् (द्वादश मंजरिका) के 12 श्लोक अपने 14 शिष्यों को कहे गए थे, उनमें यह अंतिम और अति महत्वपूर्ण श्लोक है | एक वृद्ध व्यक्ति द्वारा रटे जा रहे किसी ग्रन्थ के श्लोक को सुनकर जो कथन आदि गुरु ने प्रारम्भ किया था, उसको इस श्लोक के साथ वे विराम दे रहे हैं | वे कह रहे हैं कि सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बंधनों में फंसकर एवं व्यर्थ की चिंता करके हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा | इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात कही गई है, धन और स्त्री का बंधन | यह बंधन ही हमारे निजी संसार का निर्माण करता है और हम इस संसार की और मोह माया में फंस जाते हैं | अगर व्यक्ति धन और स्त्री के बंधन में नहीं बंधे तो उसके भीतर किसी भी प्रकार की चिंता का जन्म हो ही नहीं सकता | यह एक कटु सत्य है, जिसे स्वीकार करना कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता |
              परमात्मा ने प्रकृति के माध्यम से इस सृष्टि का निर्माण किया है | इसलिए ऐसा होना तो कभी भी संभव नहीं हो सकता कि इस संसार से धन और स्त्री का अस्तित्व ही समाप्त हो जाये | हमें धन और स्त्री के बंधन में न बंधकर चिंता मुक्त होना सीखना होगा | परम पिता ने संसार के सभी प्राणियों में से केवल मनुष्य को ही एक ऐसा प्राणी बनाया है, जिसमें विवेक जाग्रत हो सकता है | कमोबेश बुद्धि सभी प्राणियों में रहती है परन्तु उस बुद्धि को विवेक में परिवर्तित करना केवल मनुष्य के द्वारा ही होना संभव है | अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य को धन और स्त्री के बंधन में क्यों नहीं बंधना चाहिए ? धन और स्त्री, इस सृष्टि की रचना में ये दो ही ऐसे हैं, जिनके प्रति व्यक्ति आसक्त हो जाता है | आसक्ति बंधन पैदा करती है और बंधन ही उसकी समस्त चिंताओं का मूल कारण है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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