भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.13(कल से आगे)-
हमारे सद्ग्रंथ कहते हैं कि मनुष्य
के पुरुषार्थ चार हैं, काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष | पुरुषार्थ हमारे कर्मों का ही परिणाम
है | पूर्व जन्म के कर्मों से हमारा प्रारब्ध बनता है जो कि पूर्व जन्म का
पुरुषार्थ कहलाता है | वर्तमान जीवन में किये जा रहे कर्मों से हमारे इस जीवन का
पुरुषार्थ बनता है | अर्थ और काम पूर्वजन्म के पुरुषार्थ के अनुसार ही उपलब्ध होते
हैं, इन दोनों की उपलब्धि में वर्तमान जीवन के पुरुषार्थ की कोई भूमिका नहीं होती |
वर्तमान जीवन के पुरुषार्थ से हम केवल धर्म और मोक्ष को ही प्राप्त कर सकते हैं,
अर्थ और काम को नहीं | हमारे प्रायः सभी धर्मग्रंथों में इस बात को विभिन्न प्रकार
से स्पष्ट भी किया गया है, फिर भी हम इस काम और अर्थ के बंधन से अपने आपको मुक्त
नहीं कर पा रहे हैं | फिर यही बंधन हमारी विभिन्न प्रकार की चिंताओं का कारण बनता
है |
स्त्री और धन, जो हमें इस जीवन में
प्राप्त हुए हैं, वे हमारे किसी पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के परिणाम
मात्र है और उस परिणाम को भोगने के लिए ही हमें यह मानव जीवन मिला है | उन कर्मों
के परिणाम स्वरूप इस जीवन में मिले स्त्री और धन को जब हम भोगते हैं तो हमारे भीतर
इन दोनों के प्रति एक प्रकार की आसक्ति पैदा हो जाती है | आसक्ति का पैदा होना प्रकृति
प्रदत्त एक मानवीय स्वभाव है, जो उसे नए जीवन में सकाम कर्म करने के लिए प्रेरित
करता है | भोग के प्रति आसक्ति और उससे पैदा हुई सकाम कर्म करने की प्रेरणा, दोनों
ही मनुष्य को धन और स्त्री के साथ बाँध देती है | जब कर्म करना मनुष्य प्रारम्भ
करता है और उसे मनोवांछित फल मिलने लगता है, तब वह अपने आपको इन कर्मों का कर्ता
मान बैठता है | यह सकाम कर्म और उन कर्मों में कर्ता-भाव ही अंत में जाकर मनुष्य की
चिंता का मूल कारण बनता है |
हम इस चिंता से स्वयं को कैसे मुक्त रख
सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर एकदम सरल है परन्तु आत्मसात करने में बड़ा कठिन है |
हमें हमारे सद्गुरु और सद्ग्रंथों की इस बात को ह्रदय से स्वीकार करना होगा कि
स्त्री और धन, दोनों ही पूर्व मानव जीवन के पुरुषार्थ हैं और इस जीवन में इन्हें
केवल निष्काम-भाव से और आसक्ति रहित होकर इनको भोगना चाहिए | ईशावास्योपनिषद में
इसे त्याग पूर्वक भोगना (त्येन त्यक्तेन भुंजीथा) कहा गया है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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