भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.10(समापन)-
प्रश्न यह उठता है कि हमारा शरीर और
मस्तिष्क स्वस्थ क्यों नहीं रह सकते ? शरीर कर्म करने का साधन है और मस्तिष्क साधन
है काम-वासनाओं के चिंतन का | जब मन-मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की कामनाएं जन्म
लेती है, तब शरीर उन कामनाओं को पूरा करने के लिए प्रयास करता है | इन दोनों में इस
प्रकार का आपसी सम्बन्ध ही मुक्ति में बाधक है | ज्ञानेन्द्रियाँ मस्तिष्क से
सम्बंधित हैं और कर्मेन्द्रियाँ शरीर से | समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषय भोग
के संकेत मस्तिष्क तक पहुँचाती है, जो विभिन्न भोगों का रसास्वादन करने का कार्य
करता है | भोग में जब व्यक्ति की आसक्ति हो जाती है तब उसका मस्तिष्क कर्मेन्द्रियों
तक संकेत भेजता है, पुनः उन कामनाओं को, उस भोग को उपलब्ध करवाने का | इस प्रकार यह
अटूट और अभेद्य चक्र निरंतर चलता रहता है |
इस प्रकार धीरे-धीरे इन कामनाओं के
बढ़ने से तथा विभिन्न भोगों के रसास्वादन की अति हो जाने से मनुष्य के शरीर और
मस्तिष्क में विकार पैदा हो जाता है | दोनों ही अपना स्वास्थ्य खोते जाते हैं | जब
व्यक्ति की मनोदशा ख़राब हो जाती है, तब उसका शरीर भी अस्वस्थ रहने लगता है | पहले
जो विषय-भोग सुख देने वाले अमृत तुल्य लग रहे थे, वे ही अब दुःख देने वाले हो जाते
हैं | स्वस्थ शरीर व्यक्ति के जीवन का प्रथम सुख है | कहा भी जाता है कि “पहला सुख
निरोगी काया“| शरीर और मस्तिष्क, दोनों के अस्वस्थ हो जाने से बढ़कर इस संसार में
कोई दुःख नहीं है |
इन दोनों को स्वस्थ रखने का एक मात्र
उपाय है, अपनी कामनाओं पर नियंत्रण रखना, उन्हें तृष्णा बनने से रोकना | शरीर जब तक
विकार ग्रस्त नहीं होगा तब तक सुख ही सुख है | अतः सदैव यह ध्यान में रखें कि विषय
भोगों के प्रति आसक्ति पैदा न हो | जब यह आसक्ति नहीं रहेगी, हम बंधन से मुक्त भी
उसी प्रकार हो जायेंगे जैसे बिना जल के तालाब को कोई ताल नहीं कहता और धन के अभाव से
परिवार भी टूट कर परिवार नहीं कहलाता है | यही वास्तविक ज्ञान है, जिसको आत्मसात
करते ही हम संसार के बंधनों से मुक्त हो सकते हैं | इसीलिए शंकर कहते हैं कि -
वयसिगतेकःकामविकारः
शुष्के नीरे कःकासारः|
क्षीणेवित्तेकः
परिवारोज्ञातेतत्त्वेकः संसारः ||10||
अर्थात यदि हमारा
शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, तो हमें सुख की प्राप्ति नहीं होगी | वह ताल, ताल
नहीं रहता यदि उसमें जल नहीं हो | जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर
जाता है, उसी प्रकार ज्ञान की प्राप्ति होते ही हम इस विचित्र संसार के बंधनों से
मुक्त हो जाते हैं |
||भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||
कल श्लोक सं, 11
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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