Saturday, September 30, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.4(कल से आगे)-

भज गोविन्दम – श्लोक सं.-4(कल से आगे)-
        शंकराचार्य जी कह रहे हैं कि ऐसे मनुष्य जीवन में कैसी सुन्दरता ? मनुष्य के जीवन में सुन्दरता नहीं है क्योंकि वह सदैव कुंठा और कष्ट में ही घिरा रहता है | जीवन में कुंठा तभी पैदा होती है, जब हम जैसा जीवन स्वयं के लिए चाहते हैं वैसा जीवन हमें मिलता नहीं है | वैसा जीवन हमें मिलेगा भी क्योंकर ? हम राग-द्वेष, काम, क्रोध आदि विकारों से ग्रस्त हैं और कल्पना करते हैं विकार रहित जीवन की | इन विकारों से दूर होने का एक मात्र उपाय है, जैसा जीवन हमें मिला है, उसे परमात्मा का प्रसाद मानकर स्वीकार करें | हमें जो जीवन मिला है, वह हमारी अपनी ही पसंद का मिला है | यह जीवन पूर्व मानव जीवन के कर्मों के प्रभाव से बने प्रारब्ध के कारण संभव हुआ है और उसे इसी रूप में स्वीकार करने के अतिरिक्त मनुष्य के पास अन्य विकल्प भी नहीं है |
     एक कहावत है कि जो व्यवहार हमें स्वयं के लिए पसंद नहीं है, वैसा व्यवहार हमें किसी के प्रति नहीं करना चाहिए | यही सुन्दर जीवन का मूल मन्त्र है | आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि सभी विकारों से दूर रहने का प्रारम्भ में एक ही मूल मन्त्र है और वह मन्त्र है कि हम इस संसार में किसी को भी बुरा नहीं समझें | जब हम किसी को बुरा नहीं समझेंगे तब हम न तो किसी का बुरा चाहेंगे, न बुरा कर सकते हैं और न ही किसी के बारे में बुरा कह सकते हैं | जब हम ऐसा करेंगे तो संसार की दृष्टि में हम भी बुरे नहीं होंगे | बुरा नहीं समझने से और बुरा नहीं होने से हमारे भीतर कोई विकार पैदा हो ही नहीं सकता | भीतर किसी भी विकार के न रहने से हम कुंठित भी नहीं होंगे और हमारा जीवन भी कष्ट मय नहीं होगा |
         एक परमात्मा को भजने से ही हमें संसार परमात्मा मय दिखाई देने लगता है | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि “वासुदेवः सर्वम्” का भाव सबसे महत्वपूर्ण है | जिस समय हमें इस भाव का अनुभव हो जायेगा हमारा जीवन भी सुन्दर हो जायेगा | इसी लिए इस “वासुदेवः सर्वम्” को अनुभव करने के लिए गोविन्द को भजते रहना आवश्यक है | आदि गुरु शंकराचार्य जी भी इसीलिए कहते हैं कि –
नलिनीदलगतसलिलंतरलं, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् |
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकंशोकहतं च समस्तम् ||4||
अर्थात हमारा जीवन क्षण भंगुर है | यह उस पानी की बूँद की तरह है. जो कमल की पंखुड़ियों से गिरकर समुद्र के विशाल जल स्रोत में अपना अस्तित्व खो देती है| हमारे चारों और प्राणी तरह-तरह की कुंठाओं एवं कष्ट से पीड़ित हैं | ऐसे जीवन में कैसी सुन्दरता ?
|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते ||
कल श्लोक सं.5
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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