गुरु के सूत्र –
समापन कड़ी – 27
सार- संक्षेप –
गुरु के सूत्र हमें परमात्मा के
मार्ग पर अग्रसर करते हुए उस अवस्था तक पहुंचा सकते हैं, जिसे मानव जीवन की
सर्वोत्तम अवस्था कहा जा सकता है | सर्वप्रथम हमें संतुष्ट जीवन के सूत्र को
अपनाना होगा | व्यक्ति अपने जीवन से तभी संतुष्ट हो सकता है, जब वह मिल रहे
प्रत्येक साधन और सामान को परमात्मा का प्रसाद मानते हुए स्वयं में रमा रहे | आत्म
संतुष्टि मनुष्य को बाहर भटकते रहने से कभी भी नहीं मिल सकती | उसको स्वयं के भीतर
प्रवेश करना होगा | इस संसार में परमपिता ने कोई भी दो वस्तुएं अथवा व्यक्ति समान
नहीं बनाये हैं | सबको मनुष्य जीवन अपने पुरुषार्थ के अनुसार मिला है और उसके जीवन
में उपलब्धियां भी उसी पुरुषार्थ से बने प्रारब्ध के अनुसार होगी | स्वयं की तुलना
किसी दूसरे व्यक्ति से करना ही असंतोष को आमंत्रित करना है | अतः स्वयं में ही
संतुष्ट रहना ही संतुष्ट जीवन का आधार है |
संतुष्ट जीवन से व्यक्ति स्वाधीन
जीवन की और बढ़ता है | स्वाधीनता स्वयं के अधीन होने का नाम है | परमात्मा और
प्रकृति के नियमों को आत्मसात कर जीवन जीना ही स्वाधीन जीवन कहलाता है | जैसे आपका
स्वाधीन जीवन है, वैसे ही प्रत्येक प्राणी के स्वाधीन जीवन की कामना रखें | जीवन
में कभी भी किसी को अपने अधीन करने की नहीं सोचें | पराधीन जीवन सदैव ही अभिशाप
होता है | अतः स्वयं स्वाधीन होकर जीने के साथ साथ अन्य प्राणियों को भी स्वाधीन
होकर जीने दें |
स्वाधीन जीवन के साथ साथ व्यक्ति
को होश पूर्वक जीना चाहिए | ऐसे जीवन को हम चैतन्य जीवन कहते हैं | जहाँ पर और जिस
स्थिति में आकर हम होश खो देते हैं, हमारा जीवन पशु से भी बदतर स्थिति को प्राप्त
हो जाता है | मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो स्व-चेतन (Self conscious) की स्थिति को प्राप्त हुआ है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी चेतन होते हुए
भी स्व-अचेतन (Self
unconscious) की स्थिति में
रहते हैं | उन्हें स्वयं के होने के कारण का ज्ञान नहीं होता, इसीलिए अन्य
प्राणियों को मात्र भोग-योनि कहा गया है | मनुष्य स्व-चेतन है, अतः उसकी योनि भोग
के साथ साथ कर्म-योनि अथवा योग-योनि भी कहलाती है | होश पूर्वक होकर जीना ही
चैतन्य जीवन है |
गुरु का अंतिम सूत्र है कि
जीवन रसमय होना चाहिए | रस विहीन जीवन बोझिल जीवन होता है | बोझिल जीवन के कारण व्यक्ति
आनंद को कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकता | भोग-रस सांसारिक जीवन के लिए आवश्यक अवश्य है
क्योंकि भोग पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है और उन्हें भोगने ही होंगे | भोग-रस
से निकलकर ही व्यक्ति शांत-रस को उपलब्ध हो सकता है | भोगों की कामनाओं पर
नियंत्रण पाकर ही व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो सकता है | शांत-रस के बाद भाव-रस की ओर
अग्रसर होकर मनुष्य परमात्मा की भक्ति को प्राप्त होता है | भाव-रस की पराकाष्ठा मनुष्य
को प्रेम-रस की ओर ले जाती है | प्रेम-रस से व्यक्ति संत और महंत की अवस्था
प्राप्त कर परमात्म-तत्व तक पहुँच जाता है | प्रेम-रस अनंत और अखंड है | आनन्द की
यह अवस्था मनुष्य को सच्चिदानंद स्वरूप तक ले जाती है | प्रेम-रस ही आत्मा को
परमात्मा बना देता है | इस प्रकार ‘गुरु के सूत्र’ को जीवन में उतारकर हम अपनी
यात्रा को गोविन्द तक ले जा सकते हैं | केवल गोविन्द तक पहुंचकर ही मनुष्य की यह
यात्रा समाप्त हो सकती है अन्यथा यह यात्रा सांसारिक यात्रा बनकर अनवरत चलती रहेगी,
कभी भी समाप्त नहीं होगी |
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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