Friday, September 1, 2017

गुरु के सूत्र - 27 समापन कड़ी

गुरु के सूत्र – समापन कड़ी – 27  
सार- संक्षेप –
                गुरु के सूत्र हमें परमात्मा के मार्ग पर अग्रसर करते हुए उस अवस्था तक पहुंचा सकते हैं, जिसे मानव जीवन की सर्वोत्तम अवस्था कहा जा सकता है | सर्वप्रथम हमें संतुष्ट जीवन के सूत्र को अपनाना होगा | व्यक्ति अपने जीवन से तभी संतुष्ट हो सकता है, जब वह मिल रहे प्रत्येक साधन और सामान को परमात्मा का प्रसाद मानते हुए स्वयं में रमा रहे | आत्म संतुष्टि मनुष्य को बाहर भटकते रहने से कभी भी नहीं मिल सकती | उसको स्वयं के भीतर प्रवेश करना होगा | इस संसार में परमपिता ने कोई भी दो वस्तुएं अथवा व्यक्ति समान नहीं बनाये हैं | सबको मनुष्य जीवन अपने पुरुषार्थ के अनुसार मिला है और उसके जीवन में उपलब्धियां भी उसी पुरुषार्थ से बने प्रारब्ध के अनुसार होगी | स्वयं की तुलना किसी दूसरे व्यक्ति से करना ही असंतोष को आमंत्रित करना है | अतः स्वयं में ही संतुष्ट रहना ही संतुष्ट जीवन का आधार है |
                     संतुष्ट जीवन से व्यक्ति स्वाधीन जीवन की और बढ़ता है | स्वाधीनता स्वयं के अधीन होने का नाम है | परमात्मा और प्रकृति के नियमों को आत्मसात कर जीवन जीना ही स्वाधीन जीवन कहलाता है | जैसे आपका स्वाधीन जीवन है, वैसे ही प्रत्येक प्राणी के स्वाधीन जीवन की कामना रखें | जीवन में कभी भी किसी को अपने अधीन करने की नहीं सोचें | पराधीन जीवन सदैव ही अभिशाप होता है | अतः स्वयं स्वाधीन होकर जीने के साथ साथ अन्य प्राणियों को भी स्वाधीन होकर जीने दें |
                स्वाधीन जीवन के साथ साथ व्यक्ति को होश पूर्वक जीना चाहिए | ऐसे जीवन को हम चैतन्य जीवन कहते हैं | जहाँ पर और जिस स्थिति में आकर हम होश खो देते हैं, हमारा जीवन पशु से भी बदतर स्थिति को प्राप्त हो जाता है | मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो स्व-चेतन (Self conscious) की स्थिति को प्राप्त हुआ है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी चेतन होते हुए भी स्व-अचेतन (Self unconscious) की स्थिति में रहते हैं | उन्हें स्वयं के होने के कारण का ज्ञान नहीं होता, इसीलिए अन्य प्राणियों को मात्र भोग-योनि कहा गया है | मनुष्य स्व-चेतन है, अतः उसकी योनि भोग के साथ साथ कर्म-योनि अथवा योग-योनि भी कहलाती है | होश पूर्वक होकर जीना ही चैतन्य जीवन है |
                  गुरु का अंतिम सूत्र है कि जीवन रसमय होना चाहिए | रस विहीन जीवन बोझिल जीवन होता है | बोझिल जीवन के कारण व्यक्ति आनंद को कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकता | भोग-रस सांसारिक जीवन के लिए आवश्यक अवश्य है क्योंकि भोग पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है और उन्हें भोगने ही होंगे | भोग-रस से निकलकर ही व्यक्ति शांत-रस को उपलब्ध हो सकता है | भोगों की कामनाओं पर नियंत्रण पाकर ही व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो सकता है | शांत-रस के बाद भाव-रस की ओर अग्रसर होकर मनुष्य परमात्मा की भक्ति को प्राप्त होता है | भाव-रस की पराकाष्ठा मनुष्य को प्रेम-रस की ओर ले जाती है | प्रेम-रस से व्यक्ति संत और महंत की अवस्था प्राप्त कर परमात्म-तत्व तक पहुँच जाता है | प्रेम-रस अनंत और अखंड है | आनन्द की यह अवस्था मनुष्य को सच्चिदानंद स्वरूप तक ले जाती है | प्रेम-रस ही आत्मा को परमात्मा बना देता है | इस प्रकार ‘गुरु के सूत्र’ को जीवन में उतारकर हम अपनी यात्रा को गोविन्द तक ले जा सकते हैं | केवल गोविन्द तक पहुंचकर ही मनुष्य की यह यात्रा समाप्त हो सकती है अन्यथा यह यात्रा सांसारिक यात्रा बनकर अनवरत चलती रहेगी, कभी भी समाप्त नहीं होगी |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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