भज गोविन्दम- श्लोक-2
मूढ़ जहीहिधनागमतृष्णां,
कुरु सद्बुद्धिंमनसिवितृष्णाम् |
यल्लभसेनिजकर्मोपात्तं,
चित्तंतेनविनोदयचित्तम् ||2||
अर्थात हम हमेशा मोह
माया के बंधनों में फंसे रहते हैं और इस कारण हमें सुख की प्राप्ति नहीं होती | हम
हमेशा ज्यादा से ज्यादा पाने की कोशिश करते रहते हैं | सुखी जीवन बिताने के लिए
हमें संतुष्ट रहना सीखना होगा | हमें जो भी मिलता है, उसे हमें ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार
करना चाहिए क्योंकि हम जैसे कर्म करते हैं, हमें वैसे ही फल की प्राप्ति होती है |
यह श्लोक कहता है कि हम सदैव
मोह-माया में फंसे रहते हैं इसलिए हमें सुख प्राप्त नहीं होता | मोह-माया क्या है ?
मोह है, सत्य और असत्य में भेद न कर पाना, जिसके कारण हम असत्य को सत्य मान लेते
हैं | मोह है, अधर्म और धर्म में भेद न कर पाना जिसके कारण अधर्म को धर्म मानकर स्वीकार
कर लेना | माया है, जो है उसका सत्य न होना अर्थात भ्रम में रहना | जिस समय हमें
यह ज्ञान हो जायेगा कि सत्य क्या है, उसी समय हम मोह माया के बंधन से मुक्त हो
जायेंगे |
संसार में हमें सुख की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? इसका सबसे बड़ा कारण
है-हमारी तृष्णा | हम जितना और जो कुछ भी मिल रहा है, उसमें कभी भी संतुष्ट नहीं
होते | जो मिला है अथवा मिल रहा है, उसका भोग हमें तभी सुख प्रदान करता है जब हम
उससे अधिक पाने की कामना न करें | संतुष्ट जीवन ही सुखी जीवन होता है | संसार में
सुख प्रदान करने वाले भोग प्रारब्ध के अधीन हैं | जो कर्म हम पूर्व जन्म में करते
हैं, वही कर्म, प्रारब्ध बनकर वर्तमान जीवन में हमें भोग उपलब्ध कराते हैं | जो
भोग के रूप में हमें इस जीवन में फल प्राप्त हो रहे हैं, वह सब हमारे ही कर्मों का
परिणाम है | अतः किसी भी प्रकार की कोई शिकायत रहनी ही नहीं चाहिए | जब मन में
किसी भी प्रकार की कोई शिकायत नहीं रहेगी, तब संतुष्टि का जीवन में प्रवेश हो
जायेगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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