भज गोविन्दम् –
श्लोक सं.3 (कल से आगे-2)-
स्त्री का आकर्षण भी पुरुष के प्रति
होता है परन्तु एक स्त्री पुरुष को सबसे अधिक आकर्षित करती है | यही कारण है कि
शंकराचार्यजी महाराज ने इस श्लोक में स्त्री के आकर्षण को ही स्पष्ट किया है |
गोस्वामी तुलसीदासजी बड़े ज्ञानी व्यक्ति थे | जीवन के प्रारम्भ के कुछ वर्षों में
ही उन्होंने समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था | बड़े ही विवेकपूर्ण व्यक्तित्व
था, उनका | विवाह उपरांत व अपनी पत्नी के प्रति बहुत अधिक आसक्त हो गए थे | एक बार
उनकी पत्नी अपने भाई के साथ अपने पीहर चली गयी | गोस्वामीजी से उसका वियोग सहन
नहीं हुआ और वे उसी दिन अपनी ससुराल के लिए निकल पड़े | रात हो चुकी थी और रास्ते
में पड़ने वाली नदी को पार करने के लिए कोई नाव का साधन भी उपलब्ध नहीं था | उस समय
उनकी दृष्टि एक शव पर पड़ी जो नदी की धारा के साथ बहा जा रहा था | कामान्ध तुलसी ने
शव का सहारा लिया और नदी को पार किया | रात को ससुराल के घर का दरवाजा अन्दर से बंद
था | घर की दीवार से एक सर्प लटका हुआ था | कामासक्त तुलसी को वह एक रस्सी नज़र आया
और उसको पकड़कर दीवार के ऊपर चढ़कर घर के भीतर कूद गए और अपनी पत्नी के शयन कक्ष में
पहुँच गए | पत्नी ने अर्ध रात्रि को अपने पति को शयन कक्ष में देखा तो उसको बड़ा आश्चर्य
हुआ | उसने तुलसी से पूछा कि वे किस प्रकार उसके पास तक पहुंचे ? तुलसी ने सारा
घटनाक्रम बताया | सुनकर पत्नी बड़ी व्यथित हो गयी | उसने तुलसी को कहा-‘तुम्हारी जितनी
आसक्ति इस मेरे हाड़-मांस के शरीर में है, उससे आधी आसक्ति भी अगर परमात्मा के
प्रति होती तो तुम्हारा कल्याण हो गया होता |’ गोस्वामीजी को यह बात तीर की तरह
लगी और फिर जीवन भर उन्होंने स्त्री के शरीर को मात्र हाड़-मांस ही समझा | तत्काल ही
वे ससुराल से निकल पड़े और परमात्मा की शरण हो लिए | उसी घटना के परिणाम स्वरूप तुलसी
ने रामचरितमानस जैसे ग्रन्थ की रचना की और गोस्वामी तुलसीदास कहलाये | यदि चुभती
हुई बात सुनकर भी वे उस समय स्त्री के आकर्षण में जकड़े रहते तो आप कल्पना कर सकते
हैं कि क्या होता ? आज गोस्वामी तुलसीदासजी का यह दृष्टान्त देने के लिए नहीं होता
|
प्रकृति की देन है, पुरुष और
स्त्री | उनमें एक दूसरे के प्रति आकर्षण होना भी प्रकृति के स्वभाव के कारण है |
अगर आकर्षण नहीं होता तो फिर सृष्टि-चक्र कैसे चलता ? आकर्षण होना अनुचित नहीं है,
अनुचित है आकर्षण का आसक्ति में परिवर्तित हो जाना | काम-भोग अनुचित नहीं है,
अनुचित है कामासक्त हो जाना | आदि गुरु शंकराचार्य जी महाराज कह रहे हैं कि स्त्री
से न तो भागें और न ही उसे भोग कर उसमें आसक्त हो | दोनों ही अनुचित है | स्त्री
के प्रति जब आकर्षण बढे तो बारम्बार यह चिंतन करें कि उसके आकर्षित करने वाले अंग केवल
मात्र हाड़, मांस और वसा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इससे आप उस आकर्षण के वशीभूत
नहीं होंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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