Friday, September 22, 2017

भज गोविन्दम - श्लोक सं.2(कल से आगे)-

भज गोविन्दम – श्लोक-2-कल से आगे
       व्यक्ति के मोह-माया में फंस जाने के उपरांत ही उसके भीतर तृष्णा उत्पन्न होती है | तृष्णा ही असंतोष को जन्म देती है और असंतोष तृष्णा को जन्म देता है | दोनों एक दूसरे के पूरक हैं | कहने का अर्थ है कि हमारे जीवन में संतुष्टि का होना अत्यावश्यक है | जब व्यक्ति मोह-माया में फंसता है, तब वह जो कुछ भी मिला हुआ है उससे संतुष्ट नहीं होता | यह असंतोष उसे मिले हुए से अधिक पाने की कामना मन में पैदा करता है | इस बढ़ती हुई कामना को ही हम तृष्णा कहते हैं | इस प्रकार यह तृष्णा कभी भी मिट नहीं सकती | जिस प्रकार जलती हुई अग्नि में ईंधन डालते रहने से वह और अधिक भड़कती है उसी प्रकार कामना को पूरी करने के लिए किये जाने वाले कर्म और उससे मिलने वाले संभावित फल की कल्पना मात्र ही उस तृष्णा को बढ़ाते जाता है | मनुष्य की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि वह इस तृष्णा के कारण मिले हुए को भोग ही नहीं पा रहा है | इसीलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य के जीवन में सुख कहीं है ही नहीं, केवल दुःख ही दुःख है | सुख तभी मिल सकता है, जब हम मिले हुए को भोगें | साथ ही साथ भोगों से अनासक्त भी रहें, तभी हमारे जीवन में तृष्णा पैदा नहीं होगी |
          कर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसे हो सकता है कि कई विद्वान स्वीकार भी नहीं करें | स्वीकार करें अथवा नहीं करें, परन्तु यह एक वास्तविकता है कि आसक्त भाव से किये जाने वाले कर्म का फल तत्काल मिल ही नहीं सकता | इस जीवन में किये गए कर्म का फल भावी जन्म में ही मिल सकता है | जब हम इस बात का अनुभव कर लेंगे तभी हमारे जीवन में संतोष का आगमन होगा | संतोष का आगमन तृष्णा को पैदा ही नहीं होने देता | व्यक्ति को जब कर्म-फल मिलने लगते हैं, तब उसको यह भ्रम पैदा हो जाता है कि यह फल इस जन्म में किये जा रहे कर्मों का परिणाम है | जबकि वास्तविकता यह है कि हम सभी पूर्वजन्म में किये गए कर्मों का फल पाने के लिए ही इस जन्म के प्रारम्भ से ही कर्म करने लगते हैं | जब कर्मों का परिणाम हमें आशा से अधिक मिलने लगता है, तब हम यह सोचने लगते हैं कि अगर मैं और अधिक कर्म करूँगा तो और अधिक फल मिलेंगे | इसी को कर्मासक्ति और तृष्णा कहते हैं | लेकिन जब फल मिलने कम हो जाते हैं, तब हम निराश होने लगते हैं और दुःखी हो जाते हैं |
        शंकराचार्य जी यही कह रहे हैं कि मोह-माया के बंधन में पड़कर व्यक्ति में तृष्णा बढ़ने लगती है | तृष्णा असंतोष और अशांति पैदा करती है | अतः मोह-माया के बंधन से छूटने के लिए मिले हुए में ही संतोष करें और गोविन्द को भजें | इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कर्म करें ही नहीं | परमात्मा का ध्यान करते हुए स्वाभाविक कर्म करते रहें और मोह-माया में न फंसें |
||भज गोविदं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते ||
कल श्लोक सं.3  
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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