आचार्यजी सत्संग @
सुजानगढ़ – 2
न मां कर्माणि
लिम्पन्ति न में कर्मफले स्पृहा |
इति मां योSभिजानाति
कर्मभिर्न स बध्यते || गीता- 4/14||
अर्थात कर्मों के फल
में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते हैं | इस प्रकार जो मुझे
तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता |
मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि
वह प्रत्येक कार्य का स्वयं कर्ता बन बैठता है | भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही
समझा रहे हैं कि ‘कर्म मैं भी करता हूँ परन्तु कर्मों में मेरी आसक्ति नहीं है |
कर्मों में आसक्ति न होने से कर्म मुझे बांधते नहीं है और न ही मैं कर्मों में
लिप्त होता हूँ | मेरी इस तात्विक बात को जो समझ लेता है, वह मुझे भी जान लेता है
और वह भी फिर कभी कर्म-बंधन में नहीं पड़ता |’
अर्जुन को यह बात श्री कृष्ण ने आज से
लगभग 5000 वर्ष पूर्व समझाई थी | वह द्वापर युग का अंतिम चरण था, बीत गया | अभी
कलियुग चल रहा है | गीता ही हमारे लिए श्री कृष्ण है और हम अर्जुन | अतः गीता ही
हमें कर्म-योग को समझने के लिए एक मात्र साधन है | तो आइये ! प्रातः 5 बजे होने
वाली सामूहिक नित्य-स्तुति कार्यक्रम में भाग लें, जहाँ आप और हम मिलकर सामूहिक
रूप से नित्य-स्तुति के बाद प्रातः कालीन सत्र में गीता के इस महत्वपूर्ण अध्याय
चार का गीता-प्रबोधिनी से नित्य 5 श्लोकों का उनके अर्थ और स्वामीजी द्वारा की गई व्याख्या
सहित पठन करेंगे |
स्थान –
दिनांक- 7 व 8
सितम्बर 2017 श्री परशुराम भवन,
सुजानगढ़
दिनांक- 9 से 15
सितम्बर 2017 श्री माहेश्वरी सेवा सदन,
डॉ.छाबड़ा जी
के
निवास स्थान के पास , सुजानगढ़ |
सानिध्य – आचार्य
श्री गोविन्द राम शर्मा, हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार
सानुरोध -----
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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