भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.-3(समापन अंश)-
आदि शंकराचार्य जी ने स्त्री के शरीर
के आकर्षण के पीछे छुपे हाड़, मांस, वसा आदि का बारम्बार ध्यान में रखने का कहा है,
जिससे उस आकर्षण के वशीभूत न हो सकें | क्या यही एक रास्ता है, स्त्री आकर्षण से
बचने का, उस रूप के आकर्षण को स्पर्श की अवस्था तक न जाने देने के लिए ? आचार्य
श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि हाँ, एक और रास्ता है, इस आकर्षण को स्पर्श
में न बदल देने के लिए | वह रास्ता है, ‘मातृ पर दारेषु’ के भाव का | इस भाव को
सदैव ध्यान में रखना अर्थात अपनी पत्नी के अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री को मां के
समान समझना | मैं शत प्रतिशत सहमत हूँ उनके इस कथन से | परन्तु इस युग में, जिसमें
हमें दूरदर्शन पर प्रतिदिन रिश्तों को तार-तार करते सिरिअल दिखाए जा रहे हैं, जहाँ
एक पुरुष की पत्नी का पर पुरुष के साथ सम्बन्ध केवल आधुनिकता ही नहीं, प्रगतिशील
तक माना जा रहा हो, वहां यह मान लेना कि आज की युवा पीढ़ी प्रत्येक स्त्री को अपनी
मां के समान समझेगा, कल्पनातीत है | पतन की पराकाष्ठा तो तब हो जाती है, जब आज के तथाकथित
धर्मगुरु भी स्त्री आकर्षण में बंधकर व्यभिचारिता के एक-एक कर आरोपी बनते जा रहे
हैं | उन पर लग रहे इन आरोपों ने युवा पीढ़ी को सनातन धर्म से विमुख करने में आग
में घी डालने का काम किया है | आज की युवा पीढ़ी हमारे धर्म शास्त्रों से विमुख हो
रही है और इस पुरातन संस्कृति का सर्वनाश करने में लगी है, उसको सही मार्ग दिखाना
हम सब का कर्तव्य बनता है |
आचार्य जी के कथन से स्त्री के हो रहे शोषण
पर अंकुश लग सकता है | इसके लिए युवा वर्ग को सनातन धर्म और संस्कृति की महानता से
परिचित कराना आवश्यक है | जब व्यक्ति अपने धर्म और संस्कृति से थोडा सा भी जुड़
जायेगा तो फिर उसके लिए प्रत्येक स्त्री देवी-स्वरूपा ही होगी | जब ऐसी सूक्ष्म
दृष्टि व्यक्ति में विकसित हो जाएगी, तो स्थूल शरीर को देखने की दृष्टि भी बदल
जाएगी | जब हम स्त्री के स्थूल शरीर को स्थूल दृष्टि से मात्र एक भोग्य शरीर के
रूप में देखेंगे तब तो शंकराचार्य जी का कथन ही एक मात्र रास्ता है, स्त्री के प्रति
आकर्षण से बचने का | स्थूल दृष्टि में नारी का आकर्षण उसका भौतिक शरीर है और
सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर वह सर्वांग आकर्षक शरीर एक देवी स्वरूप नज़र आने लगता
है | अंतर केवल दृष्टि का है | अतः एक स्त्री की तरफ स्थूल दृष्टि के कारण आकर्षित
हों तो उसमें हाड़, मांस और वसा के संग्रह को देखें और सूक्ष्म दृष्टि से स्त्री की
ओर आकर्षित हों तो उसमें एक देवी के रूप को देखें | फिर स्त्री के प्रति होने वाले
व्यवहार में परिवर्तन स्वयंमेव आ जायेगा | एक स्त्री को देखने की दोनों ही दृष्टि सही
और उचित हैं | इनमें से व्यक्ति को किस दृष्टि का उपयोग करना चाहिए, यह उस व्यक्ति
के स्वभाव पर निर्भर करता है |
नारीस्तनभरनाभीनिवेशं,
दृष्ट्वा माया मोहावेशम् |
एतन्मासं-वसादि-विकारं,
मनसिविचिन्तयबारम्बारम् ||3||
अर्थात हम स्त्री की
सुन्दरता से मोहित होकर उसे पाने की निरंतर कोशिश करते हैं | परन्तु हमें यह ध्यान
रखना चाहिए कि यह सुन्दर शरीर केवल हाड़-मांस का टुकड़ा मात्र है |
|| भज गोविदं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते ||
कल श्लोक सं.4
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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