ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् – 21
भक्ति में अहंकार का नाश प्रारम्भ
में ही हो जाता है | ज्ञान में अहंकार का उत्पन्न होना स्वाभाविक है | अहंकार को
पैदा होने से तभी रोका जा सकता है, जब ज्ञान को श्रद्धा का साथ मिल जाये, परमात्मा
में श्रद्धा का | गोस्वामीजी ने इसी कारण से ज्ञान-मार्ग को कृपाण की धार के समान
बताया है |
ग्यान
पंथ कृपान कै धारा | परत खगेस होइ नहिं बारा ||
जो
निर्बिघ्न पंथ निर्बहई | सो कैवल्य परम पद लहई ||मानस-7/119/1-2||
इस प्रकार स्पष्ट है कि ज्ञान से
भक्ति को पाया जा सकता है और भक्ति से ज्ञान को | दोनों में से किसी एक का चयन
करना आपके स्वभाव और संस्कार पर निर्भर करता है | दोनों ही मार्ग उचित है |
भक्ति-मार्ग सरल व साध्य है जबकि ज्ञान-मार्ग एक कठिन साधन है | कर्म-मार्ग को
भक्ति-मार्ग से जोड़ने वाला मार्ग ज्ञान-मार्ग है, दिशा चाहे भक्ति से कर्म पर आने
की हो अथवा कर्म से भक्ति की ओर जाने की हो | कर्म-मार्ग अथवा भक्ति-मार्ग में से
किसी भी एक मार्ग पर चलने के लिए ज्ञान प्राप्त होना आवश्यक है, इस कथन से इंकार
नहीं किया जा सकता |
ज्ञान के महत्त्व को देखते हुए भगवान
श्री कृष्ण ने गीता में ज्ञानी भक्त को अपना सबसे प्रिय भक्त बताया है |
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते |
प्रियो हि ज्ञानिनोSत्यर्थमहं स च मम प्रियः
||गीता-7/17||
अर्थात
सभी भक्तों में ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि तत्व से जानने वाले ज्ञानी को
मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत प्रिय है |
प्रभु को ज्ञानी भक्त क्यों प्रिय हैं ?
इसका कारण है कि ज्ञानी भक्त को परमात्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान होता है |
वह परमात्मा को तत्व से जानता है, अपनी बुद्धि और विवेक से | जबकि अन्य भक्त चाहे
वे आर्त हों, अर्थार्थी हो अथवा जिज्ञासु, सभी केवल अपने स्वार्थवश परमात्मा की
आराधना करते हैं | उनका कथित ज्ञान अज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता | आर्त
भक्त को अपने दुःख को दूर करने का स्वार्थ होता है, अर्थार्थी को अर्थ प्राप्त
करने का स्वार्थ होता है और जिज्ञासु को केवल परमात्मा को जानने का परन्तु ज्ञानी
भक्त परमात्मा को पूर्ण रूप से जानकर उससे प्रेम करने लगता है, वह अपने आपको
परमात्मा से अलग नहीं मानता और सभी में तथा सभी जगह एक परमात्मा को ही देखता है,
पूर्ण बोध के साथ | यही उदारता उसको परमात्मा का प्रिय भक्त बना देती है |
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ.प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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