Tuesday, May 16, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 12

मन्मना भव मद्भक्तो – 12
          मूर्ति-पूजा निम्नतम स्तर की पूजा है, यह स्पष्ट है | परन्तु जब हम इतिहास उठाकर देखते हैं, तो पता चलता है कि सतयुग में किसी भी प्रकार की कोई मूर्ति-पूजा नहीं होती थी | मूर्ति-पूजा का उल्लेख सर्वप्रथम त्रेता युग में प्रारम्भ होने का मिलता है | रामायण में सीता द्वारा गौरी मंदिर में जाकर गौरी की प्रतिमा के पूजन का उल्लेख है | हम यह जानना चाहते हैं कि आखिर मूर्ति-पूजा की आवश्यकता क्यों हुई और इसका प्रारम्भ कब हुआ ? मूर्ति-पूजा के सम्बन्ध में भागवत इसको स्पष्ट करते हुए कहती है –
दृष्ट्वां तेषां मिथो नृणामवज्ञानात्मतां नृप |
त्रेतादिषु हरेरर्चा क्रियायै कविभि: कृता ||भागवत-7/14/39||
अर्थात नारद मुनि कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! त्रेता आदि युगों में जब विद्वानों ने देखा कि मनुष्य एक दूसरे का अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगों ने उपासना की सिद्धि के लिए भगवान् की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की |
             सतयुग में किसी भी प्रकार की मूर्ति-पूजा नहीं होती थी | त्रेता युग में जब मनुष्य स्वार्थवश एक दूसरे का अपमान करने लगे, तब विद्वानों ने देखा कि परमात्मा स्वरुप मनुष्य का सम्मान करने के स्थान पर, वे एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हैं, ऐसे में परमात्मा के अस्तित्व पर ही भविष्य में प्रश्न चिन्ह लग सकता है | उन्होंने विचार कर मनुष्य की ही आकृति में परमात्मा की मूर्तियाँ बनाई और उनको पूजने लगे | पत्थर की मूर्ति के द्वारा किसी भी मनुष्य की भावनाओं को ठेस पहुंचना असंभव है | इस कारण से मूर्ति के रूप में परमात्मा की पूजा प्रारम्भ हुयी | भागवत आगे कहती है कि केवल मूर्ति-पूजा ही पर्याप्त नहीं है, परमात्मा को पाने के लिए | किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष भावना को समाप्त करने से ही मूर्ति-पूजा सफल है अन्यथा नहीं | सभी प्राणी परमात्मा के ही अंश है, अतः किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं रखना चाहिए |
भागवत इस बात को स्पष्ट करते हुए कहती है कि -
ततोSर्चायां हरिं केचित् संश्रद्धाय सपर्यया |
उपासत उपास्तापि नार्थदा पुरुषद्विषाम् || भागवत-7/14/40||
अर्थात तभी से कितने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्री से प्रतिमा में ही भगवान की उपासना करते हैं | परन्तु जो मनुष्य से द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमा की उपासना करने पर भी सिद्धि नहीं मिल सकती |
                अगर किसी भी एक व्यक्ति से भी आपका द्वेष है, तो आपके सब अर्चन-पूजन व्यर्थ है | हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि अगर किसी एक व्यक्ति के प्रति भी आपके मन में दुर्भावना है, तो आपकी भक्ति विफल है | परमत्मा से आपकी निकटता हो ही नहीं सकती, आपका कल्याण नहीं हो सकता | भागवत में लिखा है कि ऐसा मनुष्य परमात्मा की पूजा व्यर्थ ही कर रहा है और यह वैसे ही है जैसे कोई व्यक्ति यज्ञ के बाद बची राख में ही सामग्री का हवन कर रहा है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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