मन्मना भव मद्भक्तो – 18
‘मन्मना’ अर्थात तू अपने मन को मुझमें लगा | परमात्मा में
मन लगाने का अर्थ है, अपने मन को अमन बना लो अर्थात मन होते हुए भी मन नहीं होना
लगे | मन वह है जो सांसारिकता में रमता है | परमात्मा में लग जाने वाला मन स्वतः
ही अमन हो जाता है और वह व्यक्ति तुरंत ही परम शांति को उपलब्ध हो जाता है, अमन
यानि शांति | मन को अमन बनाना बड़ा ही मुश्किल कार्य है | गीता के भक्ति योग नामक
अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए निर्देशित करते
हुए कहते हैं कि –
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि
निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न
संशयः || गीता-12/8||
अर्थात मुझमें मन को लगा और मुझमें
ही बुद्धि को लगा; इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें किसी भी प्रकार का
संशय नहीं है |
मन को परमात्मा में लगा देने से
संसार ओझल हो जाता है और सत के दर्शन हो जाते हैं | परन्तु मनुष्य के लिए इतना आसान
नहीं है, संसार को विस्मृत कर देना | बुद्धि में संसार संचित रहता है और मन के
द्वारा उस संसार को बुद्धि के द्वारा बार-बार स्मृति में लाया जाता रहता है |
संसार का इस भौतिक शरीर से सम्बन्ध है | मनुष्य के मन पर प्रायः शरीर का ही
प्रभुत्व अधिक होता है | स्वामी शिवानन्द कहते हैं कि जिनका मन परिपक्व नहीं होता
उनका मन सदैव ही अन्नमय-कोष में रहता है | अपने विज्ञानमय-कोष अर्थात बुद्धि में
वृद्धि करें और इसके द्वारा मनोमय-कोष अर्थात मन का निग्रह करें | विज्ञानमय-कोष की
वृद्धि और पुष्टि गूढ़ विचार और तर्क द्वारा होती है | मन का संयम करने से शरीर का पूर्ण संयम भी
स्वतः ही हो जाता है | हमारा शरीर मन की ही छाया है | शरीर मन का ही सांचा है,
जिसके माध्यम से मन अपने आपको व्यक्त करता है | जब आप मन को जीत लेते हैं तब शरीर
आपका दास हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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