Monday, May 22, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 18

मन्मना भव मद्भक्तो – 18
              ‘मन्मना’ अर्थात तू अपने मन को मुझमें लगा | परमात्मा में मन लगाने का अर्थ है, अपने मन को अमन बना लो अर्थात मन होते हुए भी मन नहीं होना लगे | मन वह है जो सांसारिकता में रमता है | परमात्मा में लग जाने वाला मन स्वतः ही अमन हो जाता है और वह व्यक्ति तुरंत ही परम शांति को उपलब्ध हो जाता है, अमन यानि शांति | मन को अमन बनाना बड़ा ही मुश्किल कार्य है | गीता के भक्ति योग नामक अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए निर्देशित करते हुए कहते हैं कि –
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || गीता-12/8||
अर्थात मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा; इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है |
              मन को परमात्मा में लगा देने से संसार ओझल हो जाता है और सत के दर्शन हो जाते हैं | परन्तु मनुष्य के लिए इतना आसान नहीं है, संसार को विस्मृत कर देना | बुद्धि में संसार संचित रहता है और मन के द्वारा उस संसार को बुद्धि के द्वारा बार-बार स्मृति में लाया जाता रहता है | संसार का इस भौतिक शरीर से सम्बन्ध है | मनुष्य के मन पर प्रायः शरीर का ही प्रभुत्व अधिक होता है | स्वामी शिवानन्द कहते हैं कि जिनका मन परिपक्व नहीं होता उनका मन सदैव ही अन्नमय-कोष में रहता है | अपने विज्ञानमय-कोष अर्थात बुद्धि में वृद्धि करें और इसके द्वारा मनोमय-कोष अर्थात मन का निग्रह करें | विज्ञानमय-कोष की वृद्धि और पुष्टि गूढ़ विचार और तर्क द्वारा होती है |  मन का संयम करने से शरीर का पूर्ण संयम भी स्वतः ही हो जाता है | हमारा शरीर मन की ही छाया है | शरीर मन का ही सांचा है, जिसके माध्यम से मन अपने आपको व्यक्त करता है | जब आप मन को जीत लेते हैं तब शरीर आपका दास हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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