मन्मना
भव मद्भक्तो – 7
इसका अर्थ यह कदापि न लें कि बाह्य पूजा
निम्नत्तम स्तर की भक्ति होने के कारण इस भक्ति को करना कोई पाप है | जो व्यक्ति
परमात्मा की जैसी उपासना कर सकता है, वही उचित है | भक्ति का प्रारम्भ बाह्य पूजा
से ही होता है | परन्तु केवल इस प्रकार की पूजा पर ही आकर अटक जाना परमात्मा तक
पहुँचने में देरी होना सिद्ध करता है और हो सकता है कि इस प्रकार की पूजा तक आकर
रूक जाने से भक्ति में और प्रगति न हो | इस बाह्य पूजा पर कुछ भी कहना अनुचित होगा
क्योंकि कुछ कहने से हो सकता है कि वह व्यक्ति इस प्रकार की पूजा को भी करना छोड़
दे | सत्य तो यह है कि ब्रह्म से एकाकार होने का प्रयत्न करना ही सर्वोच्च भक्ति
है | मेरी इस बात को मूर्ति-पूजा के विरोध में कदापि न लें | मैं किसी भी प्रकार
की पूजा-प्रार्थना की निंदा नहीं करता हूँ और न ही किसी प्रकार के भजन, कीर्तन और
जप की | परमात्मा का ध्यान करने की विधि का विरोध करने की तो कल्पना तक नहीं कर
सकता | हमें यह देखना चाहिए कि हमारे द्वारा की जा रही भक्ति से हमें कितनी प्रगति
मिलती है, कितना लाभ मिल रहा है ? मैं तो केवल आपके द्वारा की जा रही भक्ति में हो
रही प्रगति की बात कर रहा हूँ |
कुछ लोग पुत्रेषणा, वित्तेषणा अथवा
लोकेषणा के लिए ईश्वर की उपासना करते हैं और अपने आपको बहुत बड़ा भक्त समझते हैं,
किंतु वास्तविकता में यह कोई भक्ति नहीं है | भक्ति इससे बहुत कुछ अधिक है | ऐसे
में यह जानना अधिक आवश्यक हो जाता है कि फिर सच्चे भक्त कौन है ? स्वामी विवेकानंद
श्री चैतन्य महाप्रभु विरचित शिक्षाष्टकम् के एक श्लोक को उद्घृत करते हुए कहते
हैं कि मनुष्य को बिना किसी संकल्प के परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए और उसका
उद्देश्य ब्रह्म के साथ एकाकार होने का ही होना चाहिए | श्री चैतन्य महाप्रभु अपने
इस शिक्षाष्टकम् में इस प्रकार की अहेतुकी भक्ति को स्पष्ट करते हुए कहते हैं –
न
धनं न जनं न च सुन्दरी कवितां वा जगदीश कामये |
मम
जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि ||शिक्षाष्टकम्-4||
अर्थात
वे ही सच्चे भक्त हो सकते हैं, जो कह सके ‘हे जगदीश्वर ! मैं धन, जन, परम सुन्दरी
स्त्री अथवा पांडित्य आदि कुछ भी नहीं चाहता | मैं प्रत्येक जन्म में आपकी अहेतुकी
भक्ति चाहता हूँ |’
क्रमशः
प्रस्तुति
– डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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