Monday, May 15, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 11

मन्मना भव मद्भक्तो – 11
              स्वामी विवेकानंद ने भक्ति की तुलना एक त्रिभुज के तीन कोणों से की है | जिसका पहला कोण कहता है कि भक्ति या प्रेम कोई प्रतिदान नहीं चाहता | दूसरा कोण कहता है कि भक्ति या प्रेम में किसी प्रकार का कोई भय नहीं है | इस का तीसरा कोण कहता है कि प्रेम ही प्रेम का लक्ष्य है | प्रथम कोण को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि प्रेम में प्रतिदान चाहने वाला प्रेमी न होकर एक भिखारी है, व्यवसायी है और उसका सच्चे धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है | दूसरे कोण को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी एक स्त्री का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि जब उस अकेली स्त्री के समक्ष कोई भी हिंसक पशु आता है, तो वह भय से भाग खड़ी होती है | परंतु इसी स्त्री के साथ जब उसका बच्चा हो तो वह उस हिंसक पशु का भी भयमुक्त होकर सामना करती है क्योंकि वह बच्चे से अतिशय प्रेम करती है और उसके लिए वह भयमुक्त होकर जीवन की बाजी तक लगा देती है | तीसरे कोण की बात करते हुए वे कहते हैं कि प्रेम ही प्रेम का लक्ष्य है और एक भक्त अंत में इसी भाव पर आ पहुँचता है कि स्वयं प्रेम ही भगवान् है, शेष सब असत है | इस संसार में प्रत्यक्षतः जो भी पदार्थ है, सबमें वही भगवान् है | वही वह शक्ति है, जो सूर्य, चन्द्रमा और तारों को घुमती रहती है | स्त्री-पुरुष में, सभी जीवों में, सभी वस्तुओं में वही शक्ति प्रकाशित हो रही है | एक वही अनंत प्रेम स्वरुप है, संसार की एक मात्र संचालिनी शक्ति वही है और वही चहुँ ओर प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है |
            इस प्रकार स्वामी विवेकानंद ने एक त्रिकोण के दृष्टान्त से स्पष्ट कर दिया है कि एक साधारण मनुष्य भी भक्ति और प्रेम की राह पर चलते हुए ज्ञान को प्राप्त कर सकता है | उपासना पद्धति भले ही भिन्न प्रकार की हो, महत्त्व तो प्रेम और श्रद्धा का है | मूर्ति-पूजा और कथा-सत्संग से आगे बढ़ते हुए भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचते हुए परमात्मा के प्रेम को पाने का ही एक मात्र हमारा लक्ष्य होना चाहिए | तभी भक्ति-मार्ग पर चलने की सार्थकता है | ईश्वर की किसी भी उपासना पद्धति का विरोध नहीं करना चाहिए | सभी पद्धतियाँ एक परमात्मा का स्मरण ही कराती है | साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि केवल मूर्ति-पूजा पर ही आकर न ठहर जाएँ | हमारा उद्देश्य ब्रह्म तक पहुँचने का होना चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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