Sunday, May 28, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 24

मन्मना भव मद्भक्तो – 24
ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज इस प्रकार की द्वन्द्व से भरी भक्ति के बारे में कहा करते थे -
कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान |
घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ||
    जिस प्रकार धोबी का कुत्ता धोबी के घर और नदी के घाट के बीच केवल चक्कर ही काटता रहता है, कहीं पहुँच नहीं पाता, ठीक उसी प्रकार भक्ति के बारे में द्वन्द्व ग्रस्त मनुष्य की हालत होती है | वह सब कुछ निरुद्देश्य ही करता रहता है । अतः यह सत्य है कि भक्ति में द्वन्द्व का कोई स्थान नहीं है | अनन्य-भक्ति को स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः |
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ||गीता-11/55||
    अर्थात हे पाण्डव ! जो पुरुष केवल मेरे लिए ही सम्पूर्ण कर्तव्य कर्म करता है, मेरा आसक्ति रहित भक्त है और सम्पूर्ण प्राणियों में वैर भाव से रहित है, वह अनन्य भक्ति से युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है |
      इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति को कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिए, उनको त्यागना नहीं चाहिए, परन्तु वे सभी कर्म एक परमात्मा के लिए ही होने चाहिए | कर्मों और कर्मफल में किसी भी प्रकार की आसक्ति नहीं रखनी चाहिए | आसक्ति चाहे कर्म में हो, कर्मफल में हो अथवा परिवार, व्यक्ति अथवा अन्य किसी में भी, समस्त आसक्तियां व्यक्ति के लिए परमात्मा की भक्ति में बाधक हैं | तीसरी और अतिमहत्वपूर्ण बात कहते हैं कि सभी प्राणियों में किसी भी प्रकार का वैर भाव न रखें | वैर भाव मन को स्थिर नहीं होने देता और अस्थिर मन भक्ति में बाधक है | इस संसार में हमारे शरीर पानी में उठ रहे बुलबुले के समान हैं, कोई एक बुलबुला छोटा हो सकता है, कोई एक बड़ा | परन्तु हम सभी प्राणियों के शरीर हैं तो एक समान | फिर किससे तो वैर रखना और क्यूँ कर रखना | सभी उसी परमात्मा के अंश हैं | हाँ, हम ही भ्रमित हो गए हैं और सभी शरीरों को एक दूसरे से अलग मान बैठे हैं | आज का हमारा यह मानव शरीर किसी अन्य प्राणी के शरीर में बदल सकता है परन्तु इस शरीर को प्राप्त करने वाला कभी भी नहीं बदलता | इस अपरिवर्तनशील तत्व को सदैव स्मृति में रखेंगे, तो किसी भी प्राणी से कभी वैर भाव उत्पन्न ही नहीं होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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