मन्मना भव मद्भक्तो –
13
वैसे देखा जाये तो प्रेम और भक्ति
में कोई अंतर नहीं है | भक्ति का अर्थ है, किसी के साथ भक्त होना अर्थात एक
प्रकार का बंधन | बंधन जब संसार के साथ होता है तब वह बंधन ही कहलाता है और जब
यही बंधन परमात्मा के साथ होता है, तब भक्ति कहलाता है | संसार से प्रेम एक बंधन है क्योंकि संसार अनित्य है, उसके खोने
का भय सदैव बना रहता है | जहाँ बिछड़ने का खतरा होता है, वहां भय उत्पन्न हो ही
जाता है | इसलिए संसार से प्रेम करना भय पैदा करता है और जहाँ भय है, वहां भक्ति
कैसे हो सकती है ? भक्ति तो व्यक्ति को भयमुक्त करती है | परमात्मा से अनुराग सत्
के साथ प्रेम करना है | सत् कभी नष्ट नहीं हो सकता, वह तो शाश्वत है | अतः
परमात्मा से अनुराग रखने से उसके खोने का, उससे बिछड़ने का भय नहीं रहता है | इसलिए
परमात्मा से प्रेम करना ही भक्ति है | संसार में बंधु-बांधव, पति-पत्नी और
रिश्ते-नाते आदि से प्रेम एक प्रकार का बंधन ही पैदा करता है क्योंकि हम इनमें
इतना अधिक उलझ जाते हैं कि अपने द्वारा निर्मित इस संसार को ही सब कुछ समझ बैठते हैं | संसार जड़ है और इससे प्रेम करना सिवाय बंधनों में उलझने के
अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | यह बंधन आपको संसार के सुखों और दुखों दोनों ही प्रकार की अनुभूति
देता है |
बंधन आपको संसार के आवागमन में डाले रखता है जबकि भक्ति आपको मुक्ति दिलाती है | शाब्दिक अर्थ लें तो भक्ति और मुक्ति एक दूसरे के विलोम शब्द है | भक्ति का अर्थ है - बंधन जबकि मुक्ति का अर्थ है बंधन-मुक्त | परमात्मा से प्रेम करना सत से प्रेम करना है, जो नित्य है उससे प्रेम करना है | जो नित्य है उससे आपका किसी प्रकार का बंधन हो ही नहीं सकता क्योंकि उसके साथ बंधकर उसके खोने का भय नहीं रहता है | उससे तो केवल शाश्वत प्रेम ही हो सकता है | यह प्रेम परमात्मा के साथ आपको बांधता अवश्य है, परन्तु यह बंधन जड़ पदार्थों अर्थात अनित्य से आपको मुक्ति दिलाता है | यही कारण है कि संसार से प्रेम आपको बांधता है जबकि परमात्मा से प्रेम आपको मुक्त करता है |
बंधन आपको संसार के आवागमन में डाले रखता है जबकि भक्ति आपको मुक्ति दिलाती है | शाब्दिक अर्थ लें तो भक्ति और मुक्ति एक दूसरे के विलोम शब्द है | भक्ति का अर्थ है - बंधन जबकि मुक्ति का अर्थ है बंधन-मुक्त | परमात्मा से प्रेम करना सत से प्रेम करना है, जो नित्य है उससे प्रेम करना है | जो नित्य है उससे आपका किसी प्रकार का बंधन हो ही नहीं सकता क्योंकि उसके साथ बंधकर उसके खोने का भय नहीं रहता है | उससे तो केवल शाश्वत प्रेम ही हो सकता है | यह प्रेम परमात्मा के साथ आपको बांधता अवश्य है, परन्तु यह बंधन जड़ पदार्थों अर्थात अनित्य से आपको मुक्ति दिलाता है | यही कारण है कि संसार से प्रेम आपको बांधता है जबकि परमात्मा से प्रेम आपको मुक्त करता है |
स्वामी विवेकानन्द ने ‘भक्त के लक्षण’
शीर्षक के अंतर्गत भक्ति की अनेक परिभाषाओं का विवेचन करने के पश्चात अपना मत दिया
है कि ‘आध्यात्मिक अनुभूति के लिए किये जाने वाले मानसिक प्रयत्नों की परम्परा ही
भक्ति है, जिसका प्रारम्भ तो साधारण पूजा-पाठ से होता है और अंत ईश्वर के प्रति
प्रगाढ़ एवं अनन्य प्रेम में |’ वे कहते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है, ईश्वर सभी
प्राणियों में है, अतः मनुष्य को मनुष्य के साथ-साथ सभी जीवों से भी प्रेम करना
चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
पुनश्चः
कल की कड़ी पर बहुत सी
प्रतिक्रियाएं मिली हैं | मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं मूर्ति-पूजा के विरोध
में कतई नहीं हूँ और न ही मैंने कभी इसे व्यर्थ कहा है | मैं स्वयं मूर्ति-पूजक हूँ
| इसके बाद भी मैं कह रहा हूँ कि मूर्ति-पूजा निम्न स्तर की भक्ति है | सकाम भाव से,
पुत्रेषणा, वित्तेषणा अथवा लोकेषणा के लिए की जाने वाली मूर्ति-पूजा बाह्य पूजा कहलाती
है | इस प्रकार की पूजा से आपकी कामनाएं पूरी हो सकती है, परन्तु परमात्मा की प्राप्ति
के लिए तो मूर्ति-पूजा से बहुत आगे निकल जाना होगा |
उत्तमो ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः |
स्तुतिर्जपोSधमो
भावो बाह्यपूजाधमाधमा || महानिर्वाण तंत्र-14/122||
अर्थात जब जीव ब्रह्म से एकाकार होने का
प्रयत्न करता है, तब यह सर्वोत्तम भक्ति है | जब परमात्मा में ध्यान लगाने का
अभ्यास किया जाता है, तब यह मध्यम कोटि की भक्ति है | जब नाम का जप किया जाता है
तब यह निम्न कोटि की भक्ति है और बाह्य पूजा निम्न से भी निम्न स्तर की भक्ति है |
मूर्ति-पूजा
पर मेरा यह लेख शास्त्रों के अध्ययन और महापुरुषों के कथन पर आधारित है | मैं उनसे
सहमत हूँ | इसके कारण किसी की भावनाएं आहत हुई है, तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ |
कृपा कर इसे अन्यथा न लें |
|| हरिः शरणम् ||
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