Monday, May 29, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो – 25

मन्मना भव मद्भक्तो – 25
           गीता के मध्य से प्रारम्भ हुई बात ‘मन्मना भव मद्भक्तो...’ अंतिम अध्याय के अंतिम पड़ाव तक खींचती चली जाती है | इससे स्पष्ट होता है कि भक्ति-मार्ग चाहे कितना ही सरल क्यों न हो, उस पर यात्रा प्रारम्भ करना बहुत ही कठिन है | 10 वें अध्याय से प्रारम्भ हुआ भक्ति-ज्ञान 18 वें अध्याय के अंतिम चरण तक अनवरत चलता रहा | फिर भी अर्जुन को भक्त होने के लिए श्री कृष्ण को पुनः कहना पड़ा |
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोSसि मे ||गीता-18/65||
अर्थात हे अर्जुन ! तू मुझमें मन लगाने वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर | ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, मैं यह तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है |
               यह श्लोक 9 वें अध्याय के अंतिम श्लोक की पुनरुक्ति है | अंतर सिर्फ इतना है कि इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को विश्वास दिलाते हैं कि तू मेरे को अत्यंत प्रिय है क्योंकि मुझसे अतिशय प्रेम करता है | इसी प्रेम के वशीभूत होकर भगवान अर्जुन से सत्य प्रतिज्ञा भी कर लेते हैं | वास्तव में देखा जाये तो भक्ति प्रेम की पूर्णता भी इसी में है | गीता का गंभीरता से अध्ययन करने पर पाएंगे कि अर्जुन में सभी नौ भक्ति थी, तभी परमात्मा ने उसको अपना अत्यंत प्रिय बताया है | भक्ति को उपलब्ध हुआ व्यक्ति भक्त हो जाता है, फिर उसको भगवान से अलग कोई कर ही नहीं सकता | अर्जुन एक आदर्श भक्त था या नहीं, इसका भी अलग प्रकार से विश्लेषण किया जा सकता है परन्तु जब स्वयं भगवान ने कहा है कि अर्जुन उन्हें अत्यंत प्रिय है, तो फिर अर्जुन के भक्त होने में किसी प्रकार का संशय नहीं रह जाता है | भक्ति से भगवान के साथ एकाकार होना ही भक्त का लक्ष्य होना चाहिए | भक्ति की पूर्णता इसी में है, जब भक्त और भगवान दो न रहते हुए केवल भगवान ही रह जायें | ऐसी भक्ति ही व्यक्ति के लिए सार्थक हैं अन्यथा भक्ति-मार्ग पर चलते हुए मध्य में आकर ठहर जाना आपको परमात्मा के साथ एकाकार नहीं कर सकता | जब भक्त अपने जीवन काल में परमात्मा को पा लेता है तब वह जीवनमुक्त कहलाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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