मन्मना भव मद्भक्तो – 20
हमारा मन ही हमें बांधता है और यह मन ही
हमें मुक्त करता है | अब हमारे सम्मुख एक ही प्रश्न उपस्थित होता है कि आखिर यह मन
है क्या ? न तो यह दिखाई देता है और न ही इसको महसूस किया जा सकता है | हम केवल
कहते रहते हैं कि मन आज यह कह रहा है, मन आज उदास है, काम में आज मन नहीं लग रहा
है, बाहर जाने का मन कर रहा है आदि | वास्तव में देखा जाये तो मन कहीं है ही नहीं
| मन हमारे शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कोरी कल्पना है, एक कल्पनाजन्य कड़ी है |
कल्पना के अतिरिक्त यह कुछ है भी नहीं | जिस दिन हमने अपने मन को समाप्त कर दिया,
हमारा यह संसार, मोह, लोभ, राग, द्वेष, क्रोध आदि सभी विकार ध्वस्त हो जायेंगे |
सभी विकार मन के कारण ही संभव है | इसीलिए मन नामक कल्पना को हमारी बुद्धि से
निकाल देना ही मन से अमन हो जाना है | मन से अमन हो जाना ही मन को परमात्मा में
लगा देना है | परमात्मा में लगा मन वास्तव में अमन है, जो कि हमें परम शान्ति को
उपलब्ध कराता है जबकि शरीर में लगा मन अस्थिर और हलचल भरा होता है, जो कि अशांति
की ओर ले जाता है | ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे
और उनकी यह बात स्वर्गाश्रम गीता भवन नं.3 में दीवार पर एक जगह लिखी हुई भी है कि –
बात बड़ी है अटपटी, झटपट लखे न कोय |
जो मन की खटपट मिटे, चटपट दर्शन होय
||
मन की खटपट मिटाने से तात्पर्य मन को अमन
करना है, उसे परमात्मा में लगा देना है | परमात्मा में लगा मन कभी उद्वेलित नहीं
होता | परमात्मा में मन लगाने पर भी भक्ति से भक्त बना जा सकता है | गीता में
भक्ति योग अध्याय में इसी प्रकार के भक्त के लक्षण और गुण वर्णित किये गए हैं | इन
लक्षणों से युक्त व्यक्ति ही भक्त कहलाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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