Sunday, May 7, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 3

मन्मना भव मद्भक्तो – 3
                 अब जरा ‘योग’ की चर्चा कर लेते हैं | महर्षि पतंजलि ने सर्वप्रथम योग की अवधारणा प्रस्तुत की थी | उनके अनुसार योग के भी आठ आयाम है | महर्षि पतंजलि का ‘अष्टांग-योग’ भी मनुष्य को परमात्मा के साथ जोड़ता है, फिर भी यह योग भक्ति नहीं कहलाता है | अष्टांग-योग में योग के आठ अंग बताये गए हैं | ये अंग हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि | यम अर्थात बुरे कर्म का त्याग कर देना, नियम अर्थात अच्छे कर्म करना, आसन अर्थात शरीर रुपी साधन को स्वस्थ रखना, प्राणायाम अर्थात श्वांस पर संयम करना, प्रत्याहार अर्थात अपने दोषों को दूर करना, धारणा अर्थात चित्त को उद्देश्य में लगाना यानि मन को परमात्मा में लगाने का अभ्यास करना, ध्यान अर्थात मन को पूर्ण रूप से परमात्मा में लगा देना और समाधि अर्थात स्थिर होकर परमात्मा के साथ एकाकार हो जाना | गणित में योग का अर्थ होता है, जोड़ना | महर्षि पतंजलि के अनुसार योग आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ता है | अष्टांग-योग के प्रत्येक अंग को अगर समुचित तरीके से आत्मसात किया जाये तो आत्मा का परमात्मा से मिलन हो सकता है | भक्ति और योग में विशेष अंतर नहीं है, केवल अलग प्रकार के रास्ते का एक दृष्टिगत भेद ही प्रतीत होता है | एक लक्ष्य तक पहुंचने के रास्ते अलग-अलग नज़र आ सकते हैं परन्तु लक्ष्य एक ही रहता है - आत्मा का परमात्मा से संयोग |
          परमात्मा से एकाकार होने के लिए ज्ञान, ध्यान और कर्म के अतिरिक्त भी क्या किसी प्रकार का अन्य साधन भी हो सकता है ? इसका उत्तर है - हाँ, हो सकता है, केवल परमात्मा में श्रद्धा, प्रेम और विश्वास रखना | भक्ति की पूर्व में वर्णित तीन प्रक्रियाओं से यह अलग प्रक्रिया होने के कारण से इसे ‘भक्ति-योग’ कह दिया जाता है | इस प्रकार इस शब्द ‘भक्ति-योग’ का अस्तित्व में आना हुआ | भक्ति के अंतर्गत इस प्रकार ज्ञान, ध्यान और कर्म के साथ-साथ परमात्मा के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखने को सम्मिलित कर दिया जाता है, तब इसको भक्ति-योग कहा जा सकता है | हो सकता है, आप में से ही कई व्यक्ति मेरी इस सोच से सहमत नहीं होंगे परन्तु गंभीरता से विचार करें तो आप पाएंगे कि भक्ति से ज्ञान, ध्यान और कर्म को किसी भी प्रकार से अलग किया ही नहीं जा सकता | श्रद्धा और प्रेम भक्ति-मार्ग के प्रमुख तत्व है और ज्ञान, ध्यान तथा कर्म के साथ अगर श्रद्धा और प्रेम न हो तो भी भक्ति होना असंभव है | इसी श्रद्धा और प्रेम के साथ परमात्मा से जुड़ने को हम ‘भक्ति-योग’ कहते हैं | पूर्व में हम ज्ञान और कर्म की चर्चा कर चुके हैं इसलिए अब आगे जिस ‘भक्ति-योग’ पर हम चिंतन करने जा रहे हैं, उसमें भी श्रद्धा, प्रेम और विश्वास वाली भक्ति का विषय ही प्रमुख होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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