Friday, May 5, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 1

मन्मना भव मद्भक्तो -1
            श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात् परमात्मा की वाणी है | इसमें वर्णित ज्ञान का विभिन्न महापुरुषों ने अपने-अपने विवेक के अनुसार विश्लेषण किया है | किसी के विश्लेषण के अनुसार गीता कर्म-योग का ग्रन्थ है और किसी के अनुसार भक्ति-योग का | सब कुछ आपकी दृष्टि पर निर्भर करता है कि आप किस मानसिक अवस्था में उस दृश्य अथवा किसी ग्रन्थ को देख रहे हैं | आज गीता को कहने वाले भगवान् श्रीकृष्ण सशरीर अर्थात व्यक्त रूप से हमारे समक्ष नहीं है, जिससे कि वे हमें बता सकें कि यह ग्रन्थ मुख्य रूप से किस योग की बात करता है ? हाँ, यह सत्य अवश्य है कि गीता में बात प्रारम्भ हुई थी अर्जुन के अज्ञान से और इस ग्रन्थ का समापन होता है, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए सम्पूर्ण ज्ञान के साथ, शरणागति के साथ | गीता के मध्य में कर्म, ज्ञान, ध्यान और भक्ति के मार्ग से होता हुआ यह सम्पूर्ण ज्ञान शरणागति की बात पर आकर अपने आपको पूर्णतया स्पष्ट कर देता है | परम ब्रह्म परमात्मा के व्यक्त रूप भगवान श्रीकृष्ण ने तो गीता में इस बात का संकेत दे दिया है कि यह ग्रन्थ किस मार्ग को स्पष्ट करता है परन्तु हम सब अपने विवेक के अनुसार इसकी समीक्षा कर रहे हैं | यह हमारे विवेक पर भी निर्भर करता है कि हम परम शांति प्राप्त करने के लिए इसमें से किस योग को अधिक महत्वपूर्ण मानें | व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार इसकी मीमांसा की जा सकती है परन्तु मेरी मान्यता है कि गीता में वर्णित केवल किसी एक योग को ही महत्वपूर्ण मान लेना इस सदग्रंथ के साथ अन्याय करना होगा | सत्य कहूँ तो सभी योगों में समन्वय रखते हुए जीवन में अपने कल्याण के लिए सतत आगे बढ़ते रहना ही इस ग्रन्थ का मूल  सन्देश है |
             हाँ, यह बात अवश्य ही सत्य है कि कर्म-योग को इस ग्रन्थ में प्रमुखता मिली है और इसका एक महत्वपूर्ण कारण भी है | व्यक्ति जीवन में सबसे अधिक महत्त्व करने को ही देता है | करते-करते वह जब सुख-दुःख के दुष्चक्र में आकंठ फंस जाता है, तब उसको कुछ जानने की जिज्ञाषा पैदा होती है | जिज्ञाषा को शांत करने के लिए वह ज्यों-ज्यों ज्ञान को प्राप्त करता जाता है, जिससे उसकी दृष्टि कर्म से कुछ हटकर धीरे-धीरे भगवान की तरफ होती जाती है | कर्म योग में दृष्टि स्वयं पर रहती है जबकि शरणागति में दृष्टि परमात्मा पर आकर स्थिर हो जाती है | इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भक्ति की पराकाष्ठा शरणागति पर भी ज्ञान के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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