Friday, May 19, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 15

मन्मना भव मद्भक्तो – 15
      भक्ति के इन्हीं नौ अंगों को गोस्वामी तुलसी दासजी ने रामचरित मानस में माता शबरी को ज्ञान देते हुए परमात्मा श्री राम के श्री मुख से कहलाते हुए वर्णन किया है, जिसको नवधा-भक्ति कहा जाता है | गोस्वामीजी रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में लिखते है -
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा | दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ||
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान |
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ||35||
मन्त्र जाप मम दृढ बिस्वासा | पंचम भजन सो बेद प्रकासा ||
छठ दम सील बिरति बहु करमा | निरत निरंतर सज्जन धरमा ||
सातवं सम मोहि मय जग देखा | मोतें संत अधिक कर लेखा ||
आठवं जथा लाभ संतोषा | सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ||
नवम सरल सब सन छल हीना | मम भरोस हियँ हरष न दीना ||
नव महुं एकउ जिन्हकें होई | नारि पुरुष सचराचर कोई ||
सोइ अतिसय प्रिय भामिनी मोरें | सकल प्रकार भगति दृढ तोरें ||
           प्रथम भक्ति - संत महात्मा और तत्व ज्ञानी गुरु की सेवा में रहना | दूसरी भक्ति - परमात्मा की ही चर्चा करना | तीसरी भक्ति - अभिमान रहित होकर गुरु की सेवा करना | चौथी भक्ति - सब कपट त्यागकर परमात्मा का गुणगान करना | पांचवीं भक्ति - परमात्मा में दृढ विश्वास रखते हुए उसके मन्त्र का जाप करना | छठी भक्ति - इन्द्रिय निग्रह, अच्छा चरित्र और सज्जन पुरुषों जैसा आचरण करना | सातवीं भक्ति – संसार को सम भाव से देखना और सब में परमात्मा को ही देखना | आठवीं भक्ति - जो मिल जाये उसी में संतोष करना और सपने में भी दूसरों के दोष न देखना | नौवीं भक्ति - सरलता, सबके साथ कपट रहित व्यवहार, ह्रदय में परमात्मा का विश्वास और किसी भी बात से हर्ष या विषाद न होना | इन में से कोई भी एक भक्ति भी जिस किसी में होती है, वह परमात्मा को अतिशय प्रिय होता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment