मन्मना भव मद्भक्तो –
14
शास्त्रों में भक्ति के नौ अंग बताये
गए हैं | भक्ति का प्रारम्भ श्रवण से होता है | जिसका उल्लेख गीता के अध्याय 13 के
25 वें श्लोक में किया गया है | ज्ञान और कर्म मार्ग पर न चल सकने वालों के लिए
भक्ति-मार्ग का प्रारम्भ ही श्रवण के माध्यम से होता है | जो शनैः-शनैः आगे बढ़ते हुए आत्म निवेदन की अवस्था तक
पहुंचता है | भक्ति के इन नौ अंगों को ‘नवधा-भक्ति’ भी कहा जाता है | श्रवण अंग
में परमात्मा की कथा का श्रवण किया जाता है | कथा-श्रवण के भी तीन अंग बतलाये गए
हैं | प्रथम अंग है श्रोता | श्रोता ऐसा होना चाहिए जो श्रद्धा पूर्वक मन लगाकर
हरि कथा का श्रवण करे | दूसरा अंग है, जिज्ञासा | एक आदर्श श्रोता को जिज्ञासु
होना चाहिए | जिज्ञासु श्रोता के मन में सदैव एक प्रकार की जिज्ञासा बनी रहती है,
जो उसे मन लगाकर कथा सुनने को प्रेरित करती है | अगर श्रोता जिज्ञासु नहीं हुआ तो
कथा-श्रवण व्यर्थ है | श्रवण का अंतिम और तीसरा अंग है निर्मत्सरता | श्रोता के मन
में किसी भी व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या नहीं होनी चाहिए | किसी भी प्रकार की मन में
ईर्ष्या रहने से कथा में मन नहीं लगेगा | भागवत कथा श्रवण करने के लिए दीन और
विनम्र बनकर जाना चाहिए तथा मन में
परमात्मा को पाने की तीव्र इच्छा होनी चाहिए | आइये, शास्त्रों में वर्णित भक्ति
के सभी नौ अंगों से भी परिचय करते हैं |
श्री
मद्भागवत महापुराण में भक्त प्रह्लाद द्वारा अपने पिता हिरणकश्यपु को भक्ति के 9
प्रकार
बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं। प्रह्लाद के पिता ने
जब उससे पूछा कि गुरु पुत्रों से तुमने क्या सीखा है; तब प्रह्लाद उनको नवधा-भक्ति के बारे में जो कुछ सीखा है, वह उन्हें
बताते हैं |
श्रवणं कीर्तनं विष्णोःस्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्य मात्मनिवेदनम् || भागवत-7/5/23 ||
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्य मात्मनिवेदनम् || भागवत-7/5/23 ||
श्रवण: ईश्वर की लीला,
कथा,
महत्व,
शक्ति,
स्रोत
इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना ।
कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह
के साथ कीर्तन करना।
स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का
स्मरण करना, उनके
महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना ।
पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और
उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।
अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र
सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश
रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण,
गुरुजन,
माता-पिता
आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या
उनकी सेवा करना।
दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर
परम श्रद्धा के साथ सेवा करना ।
सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर
अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना ।
आत्म निवेदन:
अपने
आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता
न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं ।
क्रमशः
आज से हरिः शरणम् आश्रम
से श्री केदारनाथ के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ | अतः अगली कड़ी वापिस लौटा आने के पश्चात
ही प्रकाशित हो पायेगी |
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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