मन्मना भव मद्भक्तो – 19
मन का निग्रह करने के लिए ध्यान की
आवश्यकता होती है | ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में दृढ़ता नहीं रहती है, इसलिए मन
इधर उधर भटकता रहता है | इस मन के विक्षेप को दूर करने के लिए ध्यान में जाने के
लिए नेत्र बंद कर सकते हैं परन्तु कुछ समय उपरांत खुले नेत्रों से ध्यान में जाने
का प्रयास करना चाहिए | शोरगुल की परिस्थिति में भी मन को साम्यावस्था में रखना
चाहिए तभी आपमें पूर्णता आएगी | ध्यानस्थ होकर दृढ़ता से सोचें कि संसार असत्य है,
वह है ही नहीं, केवल आत्मा ही है | यदि आप आँखें खोलकर भी आत्मा का ध्यान कर सकते
हैं तो आप बलवान हो जायेंगे और मन का निग्रह करने में आपको किसी भी प्रकार की बाधा
नहीं होगी |
मन और इन्द्रियों का निग्रह बिना
ज्ञान के हो नहीं सकता | ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ही मन और इन्द्रियों को
नियंत्रित करने का विचार उत्पन्न होता है | ज्ञान से इन्द्रियों और मन का निग्रह
करने की भावना पैदा होती है और फिर ध्यान से ऐसा करना संभव हो पाता है | एक बार
संसार से ध्यान हटा कि ब्रह्म से एकाकार होने का आधार तैयार हो जाता है | मन को
परमात्मा में लगाना ध्यान के अभ्यास से ही संभव है | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि
स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं
धनंजय ||गीता-12/9||
अर्थात हे धनंजय ! यदि तू मन में
अचल स्थापन करने में असमर्थ है तो इसको मुझमें लगाने का अभ्यास करते हुए मुझको
प्राप्त करने की इच्छा कर |
मन को परमात्मा में लगाने के अभ्यास के
अंतर्गत भक्ति के सभी नौ अंग आ जाते हैं जिनमें श्रवण, मनन, कीर्तन, अर्चना, जप आदि
प्रमुख हैं | इस प्रकार की क्रियाओं को बार-बार दोहराते रहने को ही अभ्यास कहते
हैं | बार-बार दोहराते रहने से अर्थात अभ्यास से मन को परमात्मा में लगाने की
प्रक्रिया को गति मिलती रहती है | सतत अभ्यास से ध्यान की अवस्था बन जाती है, जो
व्यक्ति का संसार से लगाव समाप्त करते हुए आत्म-बोध की ओर को ले जाती है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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