मन्मना
भव मद्भक्तो – 2
गीता
में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति
केचिदात्मानमात्मना |
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन
चापरे ||गीता-13/24||
अर्थात
उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुयी सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा
अपने ह्रदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञान-योग के द्वारा और दूसरे कितने ही
कर्म-योग के द्वारा देखते हैं यानि परमात्मा को प्राप्त करते हैं |
परमात्मा को प्राप्त करने का अर्थ है, परमात्मा
के साथ भक्त होना | भक्त होने के गीता में उपरोक्त श्लोक के अनुसार तीन बताये गए
हैं | कर्म-योग, सांख्य-योग और ध्यान-योग | कर्म-योग में परमात्मा को सभी कर्म
अर्पित किये जाते हैं, ज्ञान-योग में परमात्मा को जाना जाता है और ध्यान-योग में
परमात्मा का ध्यान किया जाता है | उपरोक्त तीनों ही योग भक्ति के अंतर्गत आ जाते
हैं | इसलिए इन तीनो का का आपस में समन्वय ही भक्ति-योग कहलाता है | इन तीनों के
अतिरिक्त भी जो कुछ भी हमें परमात्मा की ओर चलने में सहायक होता है, वह भी
भक्ति-योग के अंतर्गत आ जाता है |
भक्ति क्या है ? इस शब्द और इसके
मूल भाव को जाने बिना हम भक्ति के बारे में संशयग्रस्त ही बने रहेंगे | मनुष्य के
द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया, जो उसे परमात्मा की ओर ले जाये, ‘भक्ति’
कहलाती है | इस क्रिया के अंतर्गत परमात्मा के लिए कर्म करना भी शामिल है, उसे
जानने के लिए ज्ञान प्राप्त करना भी और परमात्मा के प्रति केवल श्रद्धा और प्रेम-भाव
रखना भी | भक्ति वह प्रक्रिया है, जो हमें किसी के साथ जोड़ती है | भक्ति में जुड़ने
वाला व्यक्ति भक्त कहलाता है और जिससे व्यक्ति जाकर जुड़ता है उसे भगवान् कहते हैं
| कर्म भी हमें भगवान के साथ जोड़ सकते हैं, तब हम इसे कर्म-योग कह देते हैं और जब
ज्ञान हमें परमात्मा के साथ जुड़ने को तैयार कर देता है, तब हम उसे ज्ञान-योग कह
देते हैं | कर्म-योग और ज्ञान-योग में ‘योग’ शब्द का अर्थ ही है, जुड़ना और ‘भक्ति’
का अर्थ है, किसी से जुड़ जाने की क्रिया | गीता में कहीं पर भी भक्ति-योग शब्द का अलग
से उपयोग नहीं किया गया है | हाँ, प्रत्येक योग का वर्णन करते हुए भक्ति और भक्त
शब्द बहुत बार आये हैं | भक्ति और योग, दोनों शब्द समानार्थी है, अतः केवल भक्ति
शब्द ही पर्याप्त है, परमात्मा से जुड़ने को शब्द के माध्यम से व्यक्त करने के लिए
|
क्रमशः
प्रस्तुति
– डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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