मन्मना
भव मद्भक्तो – 6
भागवत में भगवान द्वारा कहे गए इन दो
श्लोकों पर आकर एकदम स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान और कर्म-मार्ग से भक्ति-मार्ग
क्यों तो सरल है और क्यों इन दोनों से अधिक महत्वपूर्ण भी ? एक उदाहरण से इस बात
को स्पष्ट करना चाहूंगा | एक दोलक (Pendulum) को ही लीजिये | एक दोलक जब
दोलन करता है तो वह एक बार बाईं ओर जाता है और फिर एक बार दाईं
ओर | बाईं ओर जाना कर्म-मार्ग है और दाईं ओर जाना ज्ञान-मार्ग | एक ओर कर्मों को
करने में बहुत अधिक राग है, तो दूसरी ओर कर्मों से उतनी ही अधिक विरक्ति | जबकि
भक्ति-मार्ग में कर्मों से न तो विरक्ति है और न ही अत्यंत आसक्ति | यह दोलक का एक
प्रकार से मध्य में आकर ठहर जाना है, जीवन में एक प्रकार की समता का आ जाना है | ज्ञान
के कारण पैदा हुई अत्यधिक विरक्ति परमात्मा में श्रद्धा के अभाव में कभी भी पुनः
आसक्ति में बदल सकती है परन्तु श्रद्धावान समता में रहने वाला मनुष्य न तो कर्मों
में अत्यधिक आसक्त होता है और न ही विरक्त | इसलिए भक्ति-मार्ग पर चलने वाले का
पतन नहीं हो सकता, ‘न मे भक्त प्रणश्यति’ - गीता-9/31 | न तो उसको कर्मों के करने
में आसक्ति होती है और न ही कर्मों के न करने में | भगवान् श्रीकृष्ण गीता में
कहते हैं –
नैव
तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन |
न
चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ||गीता-3/18||
अर्थात
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न ही
कर्मों के न करने से | सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका तनिक भी स्वार्थ का सम्बन्ध
नहीं रहता है |
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि कर्मों में न
तो आसक्त होना है और न ही विरक्त | मध्य में अनासक्त होकर रहना है | यही
भक्ति-मार्ग पर चलने वालों की मुख्य विशेषता है | संसार में रहते हुए भी संसार से
अलग रहना | संसार को अपने भीतर प्रवेश न करने देना | कर्म करने वाले मनुष्यों की
आसक्ति संसार में रहती है जबकि भक्ति में रत रहने वालों की परमात्मा में | महर्षि
शांडिल्य कहते हैं कि ईश्वर के प्रति अतिशय अनुराग को ही भक्ति कहते हैं | कहने का
अर्थ है कि संसार से अनुराग को विस्थापित कर परमात्मा में स्थापित करना ही भक्ति
है | यह भक्ति कितने प्रकार की है और कौन सी भक्ति की जाये, जिससे परमात्मा की
प्राप्ति शीघ्र हो सके ?
उत्तमो
ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः |
स्तुतिर्जपोSधमो
भावो बाह्यपूजाधमाधमा || महानिर्वाण तंत्र-14/122||
अर्थात जब जीव ब्रह्म से एकाकार होने का
प्रयत्न करता है, तब यह सर्वोत्तम भक्ति है | जब परमात्मा में ध्यान लगाने का
अभ्यास किया जाता है, तब यह मध्यम कोटि की भक्ति है | जब नाम का जप किया जाता है
तब यह निम्न कोटि की भक्ति है और बाह्य पूजा निम्न से भी निम्न स्तर की भक्ति है |
क्रमशः
प्रस्तुति
– डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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