मन्मना भव मद्भक्तो – 16
भक्ति ही एक ऐसा साधन है, जिसको सभी
सुगमता से कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्यों का समान अधिकार है | इस कलियुग में तो भक्ति के समान
आत्मोद्धार के लिए दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं; क्योंकि
ज्ञान, योग, तप, त्याग आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही
कठिन है | संसार में धर्म को मानने वाले जितने
लोग हैं उनमें अधिकांश ईश्वर-भक्ति को ही पसंद करते हैं | जो सत युग में श्री हरि के रूप में, त्रेता युग में श्रीराम रूप में, द्वापर युग में श्रीकृष्ण रूप में
प्रकट हुए थे, उन प्रेममय नित्य अविनाशी, सर्वव्यापी
हरि को ईश्वर समझना चाहिए | महर्षि
शांडिल्य ने कहा है ' ईश्वर
में परम अनुराग, परा अनुरक्ति [ प्रेम ] ही भक्ति है |' देवर्षि
नारद ने भी भक्ति-सूत्र में कहा है ' उस
परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है और वह अमृत रूप है |' भक्ति
शब्द का अर्थ सेवा होता है | प्रेम
सेवा का फल है और भक्ति के साधनों की अंतिम सीमा है | जैसे
वृक्ष की पूर्णता और गौरव फल आने पर ही होता है इसी प्रकार भक्ति की पूर्णता और
गौरव भगवान में परम प्रेम होने में ही है | प्रेम
ही उसकी पराकाष्ठा है और प्रेम के ही लिए सेवा की जाती है | इसलिए
वास्तव में भगवान में अनन्य प्रेम का होना ही भक्ति है | नवधा-भक्ति
में जो नौ साधन बताये गए हैं, श्रवण
से लेकर आत्म-निवेदन तक; वे
सभी सुगमता के साथ प्रत्येक मनुष्य के लिए उपलब्ध है और अल्प प्रयास से अपनाये जा
सकते हैं |
भक्ति
के प्रधान दो भेद हैं - एक साधन-रूप (जो कि करण-सापेक्ष है), जिसको
वैध और नवधा भक्ति के नाम से भी कहा है और दूसरा साध्य रूप, जिसको
प्रेमाभक्ति, प्रेम लक्षणा (जो कि करण-निरपेक्ष है) आदि
नामों से कहा है | इनमें
नवधा साधन रूप है और प्रेम साध्य है | श्रीमद
भागवत में प्रह्लादजी ने कहा है ' भगवान
विष्णु के नाम, रूप, गुण
और प्रभाव आदि का श्रवण, कीर्तन
और स्मरण तथा भगवान की चरण-सेवा, पूजन
और वन्दन एवं भगवान में दास-भाव, सखा-भाव
और अपने को समर्पण कर देना - यह नौ प्रकार की भक्ति है |' इस
उपर्युक्त नवधा भक्ति में से एक का भी अच्छी प्रकार अनुष्ठान करने पर मनुष्य परम
पद को प्राप्त हो जाता है; फिर
जो नवों का अच्छी प्रकार से अनुष्ठान करने वाला है, उसके कल्याण में तो कहना ही क्या है ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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