मन्मना
भव मद्भक्तो – 5
भगवान् श्री कृष्ण सांख्य, ध्यान और
कर्म-योग को भक्ति के साधन बताने के बाद अर्जुन को भक्ति का एक और नया साधन बताते
हुए कहते हैं –
अन्ये
त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते |
तेSपि
चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायाणा: ||गीता-13/25||
अर्थात
ध्यान, कर्म और ज्ञान-योग को साधन के रूप में अपनाने के अतिरिक्त कुछ मनुष्य
तत्त्व रूप से परमात्मा को जानने वाले पुरुषों से सुनकर और फिर उसी अनुसार
परमात्मा की उपासना करते हैं | ऐसे मनुष्य भी संसार सागर से निःसंदेह पार हो जाते
हैं |
इस श्लोक के अनुसार ध्यान, कर्म और
ज्ञान मार्ग के अतिरिक्त जो मार्ग बताया गया है, वह श्रद्धावान पुरुषों के लिए
भक्ति-मार्ग कहा जाता है | इस भक्ति के प्रथम अंग – ‘श्रवण’ को यहाँ स्पष्टतः कहा गया
है | श्रवण से फिर आगे बढ़ते हुए भक्ति के सभी अंगों को अंगीकार करते हुए ही परमात्मा को पाया जा सकता है | भक्ति के शेष
अंगों की चर्चा करने से पहले हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि भक्ति – मार्ग पर
चलने का अधिकारी कौन हो सकता है ? श्रीमद्भागवत महापुराण कहता है -
यदृच्छया
मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् |
न
निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोSस्य सिद्धिदः ||भागवत-11/20/8||
अर्थात
जो पुरुष न तो अत्यंत विरक्त है और न ही अत्यंत आसक्त है तथा किसी पूर्व-जन्म के
शुभकर्म से सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा के प्रति आसक्ति हो गयी है, वह भक्ति-योग का
अधिकारी है |
इसी
प्रकार इससे पहले वाले श्लोक में भगवान कहते हैं कि –
निर्विण्णानां ज्ञायोगो न्यासिनामिह
कर्मसु |
तेष्वनिर्विण्णाचित्तानां कर्मयोगस्तु
कामिनाम् ||भागवत-11/20/7||
अर्थात
जो लोग कर्मों तथा उसके फलों से विरक्त हो गए हैं और उनका त्याग कर चुके है, वे
ज्ञान योग के अधिकारी हैं | इसके विपरीत जिनके चित्त में कर्मों और उनके फलों से
वैराग्य नहीं हुआ है, उनमें दुःखबुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्म-योग के
अधिकारी हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति
– डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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