ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् - 23
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि कर्म-योग,
ज्ञान-योग अथवा भक्ति-योग, इन तीनों में से केवल एक मार्ग पर चलने से भी परमात्मा
को नहीं पाया जा सकता | तीनों के समन्वय से ही परम शांति को उपलब्ध हुआ जा सकता है
| इन तीनों में भी ज्ञान की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है, कर्म से भक्ति की ओर
बढ़ने के लिए | कर्म और भक्ति को जोड़ने वाली इस कड़ी से ही व्यक्ति परम शांति को
उपलब्ध हो सकता है |
ज्ञान-योग का अधिकारी कौन हो
सकता है ? इस बात को स्पष्ट करते हुए भगवान् श्री कृष्ण उद्धवजी को कहते हैं –
निर्विण्णानां ज्ञायोगो न्यासिनामिह
कर्मसु |
तेष्वनिर्विण्णाचित्तानां कर्मयोगस्तु
कामिनाम् ||भागवत-11/20/7||
अर्थात
जो लोग कर्मों तथा उसके फलों से विरक्त हो गए हैं और उनका त्याग कर चुके है, वे
ज्ञान योग के अधिकारी हैं | इसके विपरीत जिनके चित्त में कर्मों और उनके फलों से
वैराग्य नहीं हुआ है, उनमें दुःखबुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्म-योग के
अधिकारी हैं |
कर्मों से विरक्ति कर्मों से पलायन
करना नहीं है | प्रायः हम कर्म किसी बात की आशंका मन के भीतर रखकर करना नहीं चाहते
| वह आशंका या तो कर्म के परिणाम को लेकर होती है अथवा कर्म की कठिनता को लेकर
होती है | आशंका के वशीभूत होकर कर्म न करना ही कर्म से पलायन करना है | कर्मों से
विरक्ति अर्थात कर्म करने में रुचि का अभाव | कर्मों में रुचि का अभाव, कर्म के फल
को लेकर नहीं होता बल्कि यह कर्मों के विज्ञान को जानकर होता है | इस प्रकार
कर्मों से विरक्त होना, व्यक्ति के लिए ज्ञान की ओर जाने का मार्ग खोलता है | जब व्यक्ति
कर्म करता है, तब उसके फल को लेकर उसके भीतर कर्म करने का राग पैदा हो जाता है |
यह राग उसे पुनः कर्म करने को बाध्य करता है | जब मनुष्य कर्म के विज्ञान को जान
जाता है तब यह राग समाप्त हो जाता है | इसी को कर्म-वैराग्य कहा जाता है | जो
कर्मों में आसक्त होता है और यह नहीं जानता कि कर्म ही दुःख का मूल कारण है, ऐसे
लोगों के लिए कर्म-योग उचित है | जिस व्यक्ति के मन में कर्मों से वैराग्य पैदा हो
गया है वही वास्तव में ज्ञान-योग का सच्चा अधिकारी है |
कल समापन कड़ी
प्रस्तुति
- डॉ.प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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