मन्मना भव मद्भक्तो – 22
व्यक्ति भी परमात्म स्वरूप है,
इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं होना चाहिए | व्यक्ति में जब मन की प्रमुखता होती
है, तभी वह स्वयं को इस संसार में जन्म लेकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानता है
| वास्तव में देखा जाये तो जन्म-मरण और पुनर्जन्म कहीं है ही नहीं | सब हमारे मन
की कल्पना मात्र है | शरीर बदल लेने की प्रक्रिया को न तो मरण कहा जा सकता है और न
ही जन्म | जब जन्म-मरण नहीं है, तो फिर पुनर्जन्म भी नहीं होता | जन्मता और मरता
केवल भौतिक शरीर है और यह एक सत्य है कि हम शरीर नहीं है | इस प्रकार हमारा भी स्वरूप
भी परमात्मा की तरह सच्चिदानंद ही हुआ | अगर परमात्मा भी व्यक्ति भाव को प्राप्त
नहीं होते तो फिर हम भी व्यक्ति भाव को कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? यह सब कल्पना
और मन का खेल है | इस खेल का अनुभव हमें तभी हो पाता है, जब हम परमात्मा के साथ
भक्त हो जाते है | जब तक हममें व्यक्ति भाव बना रहेगा, तब तक हम सदैव विभक्त ही
बने रहेंगे |
हमारे भीतर पैदा हुआ व्यक्ति भाव
हमें परमात्मा से अलग कर देता है | व्यक्त मनुष्य और अव्यक्त परमात्मा | इससे बड़ी
और अधिक विडम्बना क्या होगी कि जिसने भौतिक शरीर बनाया है, वह शरीर में प्रवेश कर
अपने को विस्मृत कर दिया है और स्वयं को शरीर मान बैठा है | आप जब किसी दूसरे शहर
अथवा अन्य किसी स्थान पर कुछ समय के लिए जाते हैं और अस्थाई रूप से किसी धर्मशाला
अथवा विश्राम गृह में ठहरते हैं, तो क्या आप उस स्थान को ही अपना घर समझ लेते हैं
? नहीं न, तो फिर इस भौतिक शरीर रुपी अस्थायी निवास में आकर इसे अपना क्यों समझ
बैठे हैं ? केवल अपना ही नहीं बल्कि स्वयं को ही शरीर मान बैठे हैं |
भक्ति-मार्ग आपको आत्म-बोध कराता है,
आपका स्वयं से परिचय कराता है, आपकी स्मृति को वापिस लाकर | आप क्या हैं और क्या
मान बैठे हैं, इस बात को स्पष्ट करती है, भक्ति | ज्ञान और कर्म इस कार्य में
भक्ति के सहयोगी होते हैं | जब भक्ति-मार्ग पर चलना प्रारम्भ करते हैं, तभी आपको
अपने कर्म और ज्ञान का सही और उचित उपयोग करना ज्ञात होता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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