ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् -22
गीता
में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
उदाराः
सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् |
आस्थितः
स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ||गीता-7/18||
अर्थात
सभी भक्त उदार हैं परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा ही स्वरुप ही है- ऐसा मेरा मत
है, क्योंकि वह मन बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझ में ही स्थित
है |
वास्तविक ज्ञानी भक्त अपने आपको
परमात्मा से अलग समझता ही नहीं है | भक्ति में भी भक्त को अपने से अलग परमात्मा को
मानना होता है, भक्त अलग और भगवान अलग | ज्ञान के अभाव में भक्ति अंधी है और भक्ति
के अभाव में ज्ञान पंगु | भक्ति के लिए ज्ञान और वैराग्य दोनों की आवश्यकता होती
है | कुछ कथित ज्ञानी जन मानते हैं कि परमात्मा का ज्ञान हो जाने पर भक्ति की कोई
आवश्यकता नहीं रह जाती है, मैं उनकी इस बात से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ | ऐसे
ज्ञानीजन भक्ति को तिरस्कृत करते हैं | साथ ही ऐसे भक्तजन भी हैं जो ज्ञान और
वैराग्य की उपेक्षा करने लगते हैं | वास्तविकता यह है कि ज्ञान और वैराग्य एक
दूसरे के पूरक हैं | एक के अभाव में दूसरा पंगु बन जाता है | अतः ज्ञान और वैराग्य
सहित भक्ति होनी चाहिए |
भक्ति रहित ज्ञान केवल अभिमानी ही
बनाता है | ज्ञान के साथ भक्ति मिल जाती है, तो व्यक्ति नम्र बन जाता है | भक्ति
का साथ न हो तो ज्ञान व्यक्ति को उद्दंड बना देता है | ज्ञान प्राप्त होने के बाद
अगर धन, प्रतिष्ठा आदि मिलने लग गए तो निश्चित रूप से पतन ही होगा | अतः ज्ञानी
होने के साथ-साथ भक्त होना आवश्यक है | व्यक्ति ज्ञानी होने के साथ ईश्वर से प्रेम
करने लगे तभी परमात्मा उसको दर्शन देंगे अन्यथा ज्ञान केवल सैद्धांतिक (Theoretical) ही बनकर रह जायेगा | जैसे मनुष्य अपनी सारी धन-सम्पति
केवल निजी व्यक्ति को ही बताता है, ठीक उसी प्रकार प्रभु भी अपने सच्चे प्रेमी
भक्त को ही अपना सत्य स्वरुप दिखाते हैं | ज्ञान, भक्ति और वैराग्य, इन तीनों का
समन्वय होने पर ही परमात्मा से साक्षात्कार हो सकता है, किसी एक अकेले से नहीं |
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ.प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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