मन्मना
भव मद्भक्तो – 8
अहेतुकी (स्वार्थ रहित) भक्ति से जब भक्त
इस उच्च अवस्था तक पहुँच जाता है, तब वह सब चीजों में ईश्वर को और ईश्वर में सब
चीजों को देखने लगता है | यही पूर्ण भक्ति की अवस्था होती है | गीता में भगवान्
श्रीकृष्ण कहते हैं –
यो
मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं
न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||गीता-6/30||
अर्थात
जो पुरुष सभी प्राणियों में मुझको और सम्पूर्ण प्राणियों को मुझमें देखता है, उसके
लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं हो सकता |
इसी अवस्था को प्राप्त करना ही वास्तव
में लक्ष्य को प्राप्त करना है | जब सभी ओर परमात्मा के दर्शन हो, वही परमात्मा के
साथ एकाकार हो जाना है | शास्त्रों में भक्ति का विविध प्रकार से वर्णन किया गया
है | हम ईश्वर को ही अपने माता-पिता कहते और मानते आये हैं | भक्ति की दृढ स्थापना
के लिए ऐसे संबंधों की शास्त्रों ने कल्पना की है, जिससे हम ईश्वर के सानिध्य और
प्रेम का अनुभव गहराई से कर सकें | एक सच्चा भक्त ईश्वर को अपने प्राणों से भी
अधिक प्रेम करता है, इसीलिए वह परमात्मा को माता-पिता कहे और माने बिना नहीं रह
सकता | प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए श्री कृष्ण की रासलीला का उदाहरण ही लें |
इसमें राधा-कृष्ण के प्रेम को अभिव्यक्त किया गया है | रासलीला की कथा भक्त के
यथार्थ भाव को प्रकट करती है क्योंकि इस संसार में स्त्री-पुरुष के प्रेम से अधिक
प्रबल प्रेम कोई अन्य हो ही नहीं सकता | जहाँ इस प्रकार का अतिशय प्रेम होगा वहां
पर भय, वासना और आसक्ति होने का प्रश्न ही नहीं है | माता-पिता के प्रति संतान का
प्रेम भय मिश्रित है क्योंकि माता-पिता के प्रति श्रद्धा में भी भय का भाव अधिक है
| स्त्री-पुरुष का प्रेम एक अच्छेद्य बंधन पैदा कर दोनों को तन्मय कर देता है |
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि श्री कृष्ण पुरुष हैं, वह सृष्टि को पैदा करता है या
नहीं, वह हमारी रक्षा करता है या नहीं, इससे हमें क्या प्रयोजन ? वह हमारा प्रियत्तम
है, हमारे आराध्य है | अतः हमें भय का त्याग कर उसकी उपासना करनी चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति
– डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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