Friday, May 12, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 8

मन्मना भव मद्भक्तो – 8
       अहेतुकी (स्वार्थ रहित) भक्ति से जब भक्त इस उच्च अवस्था तक पहुँच जाता है, तब वह सब चीजों में ईश्वर को और ईश्वर में सब चीजों को देखने लगता है | यही पूर्ण भक्ति की अवस्था होती है | गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं –
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||गीता-6/30||
अर्थात जो पुरुष सभी प्राणियों में मुझको और सम्पूर्ण प्राणियों को मुझमें देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं हो सकता |
             इसी अवस्था को प्राप्त करना ही वास्तव में लक्ष्य को प्राप्त करना है | जब सभी ओर परमात्मा के दर्शन हो, वही परमात्मा के साथ एकाकार हो जाना है | शास्त्रों में भक्ति का विविध प्रकार से वर्णन किया गया है | हम ईश्वर को ही अपने माता-पिता कहते और मानते आये हैं | भक्ति की दृढ स्थापना के लिए ऐसे संबंधों की शास्त्रों ने कल्पना की है, जिससे हम ईश्वर के सानिध्य और प्रेम का अनुभव गहराई से कर सकें | एक सच्चा भक्त ईश्वर को अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम करता है, इसीलिए वह परमात्मा को माता-पिता कहे और माने बिना नहीं रह सकता | प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए श्री कृष्ण की रासलीला का उदाहरण ही लें | इसमें राधा-कृष्ण के प्रेम को अभिव्यक्त किया गया है | रासलीला की कथा भक्त के यथार्थ भाव को प्रकट करती है क्योंकि इस संसार में स्त्री-पुरुष के प्रेम से अधिक प्रबल प्रेम कोई अन्य हो ही नहीं सकता | जहाँ इस प्रकार का अतिशय प्रेम होगा वहां पर भय, वासना और आसक्ति होने का प्रश्न ही नहीं है | माता-पिता के प्रति संतान का प्रेम भय मिश्रित है क्योंकि माता-पिता के प्रति श्रद्धा में भी भय का भाव अधिक है | स्त्री-पुरुष का प्रेम एक अच्छेद्य बंधन पैदा कर दोनों को तन्मय कर देता है | स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि श्री कृष्ण पुरुष हैं, वह सृष्टि को पैदा करता है या नहीं, वह हमारी रक्षा करता है या नहीं, इससे हमें क्या प्रयोजन ? वह हमारा प्रियत्तम है, हमारे आराध्य है | अतः हमें भय का त्याग कर उसकी उपासना करनी चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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