मन्मना भव मद्भक्तो –
26
जब
मनुष्य अपने जीवन काल में ही ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है तब वह ब्रह्म भूत
कहलाता है | गीता में भगवान श्री कृष्ण ब्रह्म भूत की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं
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ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति |
समः
सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||गीता-18/54||
अर्थात ब्रह्म भूत
यानि सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित प्रसन्न चित्त वह योगी न तो किसी
के लिए शोक करता है और न ही किसी की आकांक्षा करता है | ऐसा समस्त प्राणियों में
समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है |
ब्रह्म भूत की विशेषता है कि एक तो
वह सदैव प्रसन्न रहता है | उसे संसार की कोई और किसी भी प्रकार की परिस्थिति
विचलित नहीं कर सकती | दूसरे, किसी के लिए वह न तो शोक करता है और न ही किसी वस्तु
की आकांक्षा ही करता है | वह अपने आप में ही संतुष्ट रहता है | उसके लिए संसार के
सभी प्राणी समान होते हैं | वह न तो किसी को अधिक महत्वपूर्ण समझता है और न ही
किसी को महत्वहीन | परमात्मा कहते हैं कि ऐसा योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो
जाता है | पराभक्ति भक्ति कि सर्वोच्च अवस्था को कहते हैं जिस अवस्था तक पहुँचने
पर भक्त को सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है, फिर जानने को कुछ भी शेष नहीं रह
जाता है | इस अवस्था में आकर भक्त समस्त कर्मों और गुणों से परे हो जाता है अर्थात
गुणों का उल्लंघन कर गुणातीत हो जाता है | कुछ कर्म करने अथवा न करने से उसको कोई
प्रयोजन नहीं रह जाता है | इसी अवस्था को परम सिद्ध हो जाना भी कहते हैं |
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भक्ति
का उद्देश्य केवल एक ही होना चाहिए, और वह लक्ष्य है, परमात्मा के साथ योग | भक्ति
के विभिन्न साधन श्रवण से लेकर आत्म-निवेदन तक पहुंचना ही हमारा ध्येय होना चाहिए
| केवल तीर्थ-यात्रा, मूर्तिपूजा आदि पर आकर नहीं अटक जाना चाहिए | कथा-श्रवण,
पूजन, अर्चन आदि सबका अपने-अपने स्थान पर महत्त्व है परन्तु इनमें से किसी एक पर
आकर रूक जाना आपको पराभक्ति से वंचित कर सकता है | अतः व्यक्ति को भक्ति-मार्ग पर
चलते हुए निरंतर प्रगति करते रहना चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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