मन्मना
भव मद्भक्तो - 4
परमात्मा में श्रद्धा, प्रेम और
विश्वास रखकर भक्ति-मार्ग पर चलने वाले को भक्त कहा जाता है | हमारे लिए भक्त बनना
भी तभी आवश्यक है, जब हम परमात्मा से विभक्त हो गए हों | परमात्मा ने इस सृष्टि का
निर्माण करने से पहले मन को पैदा किया | ‘सोSकामयात बहुस्यामि’ अर्थात परमात्मा ने
अपने मन में कामना की कि स्वयं के आनंद के लिए मैं एक से अनेक हो जाऊं | इस प्रकार
उसने मनुष्य को बनाया और साथ ही साथ आनंद प्राप्ति के लिए उस मनुष्य में मन को
पैदा किया | मनुष्य के इस मन ने ही आनंद प्राप्त करने के स्थान पर परमात्मा को ही विभक्त
कर देने का कार्य किया | परमात्मा और मनुष्य के रूप में | मन ने ‘मैं’ को पैदा
किया और साथ ही साथ ‘तूं’ को भी | जहाँ ‘मैं’ है वहां ‘तूं’ भी अवश्य रहेगा | हम इस
बात को एकदम भूल चुके हैं कि हम भी परमात्मा स्वरूप है | भगवान को हम पहचान नहीं
पा रहे हैं और केवल उसको प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं | हम भक्ति किसकी कर
रहे हैं ? अगर देखा जाये तो हम स्वयं ही भगवान् हैं और स्वयं को पाने के लिए अपनी
ही भक्ति कर रहे हैं | परन्तु हम स्वयं को पहचाने बिना, स्वयं को अपने से अलग
मानकर उस स्वयं से विभक्त हुए स्वयं की ही भक्ति कर रहे हैं | जिस दिन हमें इस खोये
हुए ‘स्वयं’ की वास्तविकता का पता चल जायेगा तब किसी भी प्रकार की भक्ति करने की
आवश्यकता भी नहीं रहेगी | इस अवस्था को उपलब्ध हो जाने पर न तो कोई अलग से भक्त
होगा और न ही अलग से भगवान | सब कुछ वही होगा, एक परमात्मा, भक्त भी वही, भगवान्
भी वही, ‘मैं’ भी वही, ‘तूं’ भी वही |
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्वयं को
जानने की प्रक्रिया का नाम ही भक्ति है | जब तक हम श्रद्धाहीन भक्ति करते रहेंगे
तब तक हमारा भगवान् भी हमसे अलग बना रहेगा | जब हमें आत्म-ज्ञान हो जायेगा तब न तो
अलग से कोई भक्त होगा न ही अलग से कोई भगवान | इस प्रक्रिया अर्थात भक्ति का
इसीलिए अधिक महत्त्व है क्योंकि हमें स्वयं को मनुष्य से परमात्मा होने को जानना
है | हमें विभक्त से पुनः भक्त होना है, यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है |
इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भक्ति करने की आवश्यकता है | तो आइये ! इस
लक्ष्य को साधने के लिए भक्ति-मार्ग की ओर चलते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति
– डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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