मन्मना भव मद्भक्तो – 23
हमें
परमात्मा कि भक्ति क्यों और किस प्रकार करनी चाहिए ? सांसारिक कार्यों के लिए भी
हम किसी न किसी व्यक्ति से एक सीमा से अधिक जुड़ते हैं और उनसे अपने कार्य के लिए
सम्बन्ध जोड़ते हैं | ऐसा अस्थाई सम्बन्ध हमें सांसारिक लाभ तो दिला सकता है परन्तु
अध्यात्मिक लाभ नहीं | हमारा परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध है | एक परमात्मा के
अतिरिक्त किसी अन्य से सम्बन्ध हमें सांसारिकता में धकेलता है, जो कि हमारे
सुख-दुःख का कारण बनता है | परमात्मा से सम्बन्ध आनन्द और परमशान्ति की प्राप्ति
कराता है | अतः भक्ति अगर करनी ही हो तो केवल और केवल परमात्मा की ही करनी चाहिए |
ऐसी भक्ति को अनन्य भक्ति कहा जाता है | फिर जब भक्त बनना ही है तो किसी व्यक्ति
का न बनकर एक परमात्मा का ही क्यों न बनें | अनन्य-भक्ति के बारे में भगवान श्री
कृष्ण गीता में कहते हैं -
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप
||गीता-11/54||
अर्थात हे अर्जुन ! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं इस
प्रकार प्रत्यक्ष देखने के लिए, तत्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए भी
शक्य हूँ |
परमात्मा की अनन्य-भक्ति में रत रहने से आप परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन भी
कर सकते हैं, ज्ञान प्राप्त कर उसे तात्त्विक रूप से जान भी सकते हैं तथा ऐसी
भक्ति की उच्चावस्था पर पहुंचकर परमात्मा में प्रवेश कर उसके साथ एकाकार भी हो
सकते हैं | दर्शन, तात्विक-ज्ञान और परमात्मा में प्रवेश, केवल अनन्य भक्ति के
कारण ही हो सकते हैं, संशयग्रस्त भक्ति करके नहीं, हेतुकी भक्ति से नहीं | इन
तीनों ही लक्ष्यों को साधने के लिए अनन्य-भक्ति होनी चाहिए, अहेतुकी-भक्ति होनी
चाहिए | ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी अनन्य-भक्ति को स्पष्ट करते
हुए कहा करते थे कि इसके लिए परमात्मा में परम श्रद्धा का होना आवश्यक है | सदैव
परमात्मा को कहते रहें कि ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूं नहीं |’ परमात्मा में इस
प्रकार की श्रद्धा और विश्वास अनन्य-भक्ति के लिए प्रथम आवश्यकता है | भक्ति में
द्वंद्व का कोई स्थान नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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