मन्मना
भव मद्भक्तो – 9
स्वामी
विवेकानंद कहते हैं कि जिस समय मनुष्य की सब वासनाएं मिट जाती हैं, जिस समय सभी
विषयों से निवृति हो जाती है और उनका चिंतन तक नहीं रहता, जिस समय वह ईश्वर के लिए
पागल हो जाता है, वस्तुतः उसी समय मनुष्य ईश्वर से प्रेम करता है | कृष्ण स्वयं
ईश्वर थे, राधा उनसे प्रेम करती थी | जिन ग्रंथों में राधा-कृष्ण के प्रेम का
चित्रण किया गया है, उनको पढ़ने से पता चलता है कि वास्तव में ईश्वर से किस प्रकार
प्रेम करना चाहिए ? किंतु इस प्रकार के अपूर्व प्रेम के तत्त्व को कितने लोग जानते
हैं ? हमारे में से बहुधा लोगों का ह्रदय पाप से परिपूर्ण है | वे नहीं जानते की
प्रेम की पवित्रता और नैतिकता क्या है ?
भक्ति की प्रथम अवस्था में भक्त ईश्वर को
प्रभु और स्वयं को एक दास समझता है | वह अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
परमात्मा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है | ईश्वर प्रेम का मूर्त रूप है |
अनादि, अनंत ईश्वर प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है | हमारा उपास्य केवल यही प्रेम
का ईश्वर है | जब तक हम उसे सृष्टा, पालनकर्ता आदि समझते हैं, तभी तक बाह्य पूजा
की आवश्यकता रहती है | किंतु जिस समय इन समस्त भावनाओं का त्याग कर ईश्वर को प्रेम
का अवतार स्वरुप समझ लेते हैं एवं सब वस्तुओं में उसे और उसमें सब वस्तुओं को
देखते है, तत्काल ही हमें परा भक्ति प्राप्त हो जाती है |
भक्ति के बारे में विभिन्न प्रकार की
कथाओं के माध्यम से हमारे पुराणों में बहुत कुछ स्पष्ट किया गया है | पुराण कितने
पौराणिक है, विवाद का विषय हो सकता है परंतु इन पुराणों में जिन भक्तों का चरित्र
चित्रण किया गया है, उन भक्तों की भक्ति को लेकर किसी भी प्रकार का विरोधाभास कहीं
और किसी में भी नहीं है | भक्त प्रह्लाद हो अथवा ध्रुव, सभी भक्तों के चरित्र
वर्णित करने का उद्देश्य भक्ति को प्रचारित प्रसारित करना ही रहा होगा | इनके
चरित्र को पढ़कर हमें हमारे जीवन में उतारना होगा, तभी इन पुराणों की सार्थकता है |
सभी पुराण सगुण रूप की उपासना को श्रेयस्कर बतलाते हैं | ईश्वर के सगुण रूप की उपासना
किये बिना साधारण मनुष्य का काम चल ही नहीं सकता | अगर एक साधारण मनुष्य सगुण रूप
की उपासना करना बंद कर दे तो उसे ईश्वर के स्थान पर अपने माता-पिता, भाई, आचार्य अथवा
गुरु की उपासना करनी पड़ेगी और विशेष रूप से स्त्रियों का तो सगुण रूप की उपासना के
बिना काम चल ही नहीं सकता | इसीलिए स्त्रियाँ अपने पति को परमात्मा मानते हुए एक
प्रकार से ईश्वर के सगुण रूप की ही उपासना करती है | मेरे कहने का अर्थ यह है कि
हम चाहे निर्गुण और निराकार स्वरुप की सत्ता स्वीकार करते हुए कितनी भी चर्चा कर
लें, परन्तु जब तक हम इस मृत्यु लोक के साधारण मनुष्य की स्थिति में रहेंगे, तब तक
हमें मनुष्य के रूप में ही भगवान् को देखना पड़ेगा | इसीलिए मनुष्य के शरीर को मंदिर
कहा गया है | आप इतिहास उठाकर देख सकते हैं कि इस संसार में सदैव मनुष्य ही मनुष्य
की उपासना करता आ रहा है |
क्रमशः
प्रस्तुति
– डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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