मन्मना भव मद्भक्तो – 10
प्रारम्भ से लेकर आज तक ईश्वर की उपासना में न जाने कितने आडम्बर प्रवेश कर चुके हैं, फिर भी सभी में सार-तत्व एक ही है कि मनुष्य ईश्वर की मनुष्य के रूप में ही उपासना कर सकता है | हमारे पुराणों में भी न जाने कितने आडम्बर समाहित है और मैं यह भी आपको नहीं कहता की आप उन सभी आडम्बरों को मानने को विवश हैं | परन्तु इन सब के पीछे जो सार छुपा हुआ है, वह एक ही सार-तत्व है, और वह है परमात्मा की भक्ति | अतः भक्ति से सम्बन्धित पुराणों में संकलित सभी उपदेशों को आत्मसात करने का उद्देश्य रखें और जो कुछ भी आडम्बर लगे, उसे छोड़ दें |
स्वामी विवेकानंद भी मूर्ति-पूजा की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि इस देश में मूर्ति-पूजा आदिकाल से चली आ रही है और यह भक्ति की रीढ़ कही जाती है | भारत में सर्वप्रथम कबीर ने ही मूर्ति-पूजा का विरोध किया था | भारत में कबीर से पहले भी कई बड़े बड़े दार्शनिक और धर्म संस्थापक हुए हैं, जिन्होंने भगवान् के सगुण रूप को अस्वीकार किया है और निर्गुण मत का प्रचार किया है, फिर भी उन्होंने भी मूर्ति-पूजा की कभी भी निंदा नहीं की | हाँ, उन्होंने मूर्ति-पूजा को उच्च कोटि की उपासना बिलकुल भी नहीं माना है | साथ ही साथ किसी भी पुराण ने मूर्ति पूजन को ऊंचे दर्जे की उपासना नहीं ठहराया है |
श्रीमदभागवत महापुराण में भगवान मूर्तिपूजा के बारे में कहते हैं-
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा |
तमवज्ञाय मां मर्त्यःकुरुतेSर्चाविडम्बनम् ||
यो मां सर्वेषु भूतेषुसन्तमात्मानमीश्वरम् |
हित्वार्चा भजते मौढ्याद्भस्मन्येवजुहोति सः ||3/29/21-22||
अर्थात् मैं आत्मा रूप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ; इसलिए जो लोग मुझ सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वांग मात्र है | मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ; ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
प्रारम्भ से लेकर आज तक ईश्वर की उपासना में न जाने कितने आडम्बर प्रवेश कर चुके हैं, फिर भी सभी में सार-तत्व एक ही है कि मनुष्य ईश्वर की मनुष्य के रूप में ही उपासना कर सकता है | हमारे पुराणों में भी न जाने कितने आडम्बर समाहित है और मैं यह भी आपको नहीं कहता की आप उन सभी आडम्बरों को मानने को विवश हैं | परन्तु इन सब के पीछे जो सार छुपा हुआ है, वह एक ही सार-तत्व है, और वह है परमात्मा की भक्ति | अतः भक्ति से सम्बन्धित पुराणों में संकलित सभी उपदेशों को आत्मसात करने का उद्देश्य रखें और जो कुछ भी आडम्बर लगे, उसे छोड़ दें |
स्वामी विवेकानंद भी मूर्ति-पूजा की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि इस देश में मूर्ति-पूजा आदिकाल से चली आ रही है और यह भक्ति की रीढ़ कही जाती है | भारत में सर्वप्रथम कबीर ने ही मूर्ति-पूजा का विरोध किया था | भारत में कबीर से पहले भी कई बड़े बड़े दार्शनिक और धर्म संस्थापक हुए हैं, जिन्होंने भगवान् के सगुण रूप को अस्वीकार किया है और निर्गुण मत का प्रचार किया है, फिर भी उन्होंने भी मूर्ति-पूजा की कभी भी निंदा नहीं की | हाँ, उन्होंने मूर्ति-पूजा को उच्च कोटि की उपासना बिलकुल भी नहीं माना है | साथ ही साथ किसी भी पुराण ने मूर्ति पूजन को ऊंचे दर्जे की उपासना नहीं ठहराया है |
श्रीमदभागवत महापुराण में भगवान मूर्तिपूजा के बारे में कहते हैं-
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा |
तमवज्ञाय मां मर्त्यःकुरुतेSर्चाविडम्बनम् ||
यो मां सर्वेषु भूतेषुसन्तमात्मानमीश्वरम् |
हित्वार्चा भजते मौढ्याद्भस्मन्येवजुहोति सः ||3/29/21-22||
अर्थात् मैं आत्मा रूप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ; इसलिए जो लोग मुझ सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वांग मात्र है | मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ; ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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