ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् – 20
इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि ज्ञान
से कर्म-बंधन की जड़ता को त्यागते हुए हम भक्ति के मार्ग पर चल सकते हैं | दूसरा
सीधा रास्ता है, अपने भीतर श्रद्धा रखते हुए भक्ति-मार्ग को पकड़ लिया जाये | कर्म
और ज्ञान मार्ग साधन है भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए, जबकि भक्ति एक साधन न होकर
स्वयं ही साध्य है | अतः इस मार्ग पर चलने के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है
बल्कि श्रद्धापूर्वक मानने की आवश्यकता है | कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग में कुछ
करते हुए परमात्मा को जानने के प्रयास के बाद उसे माना जाता है जबकि भक्ति में
श्रद्धा और विश्वास रखते हुए परमात्मा को माना जाता है | भक्ति-मार्ग पर चलते रहने
से व्यक्ति ज्ञान को स्वयंमेव ही उपलब्ध हो जाता है | भक्ति से ज्ञान को उपलब्ध हो
जाना और ज्ञान से भक्ति को पा लेना, दोनों ही रास्ते सही हैं, बस ज्ञान से भक्ति
को पाने में श्रम की अधिक आवश्यकता होती है और भक्ति से ज्ञान पाने में श्रद्धा की
|
गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री
रामचरितमानस में कहा है कि ज्ञान और भक्ति में अधिक भेद नहीं है | वे लिखते हैं –
भगतिहि
ग्यानहि नहिं कछु भेदा | उभय हरहिं भव संभव खेदा ||मानस-7/115/13||
अर्थात
भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है | दोनों ही संसार से उत्पन्न होने वाले
क्लेशों को दूर कर देते हैं |
ज्ञान-मार्ग को भक्ति-मार्ग से कठिन
इसलिए बताया जाता है क्योंकि ज्ञान-मार्ग पर चलते रहने के बावजूद भी मनुष्य
विषय-भोगों की ओर बार-बार आकर्षित होता रहता है | यह आकर्षण ज्ञानी को संसार में खींचता
रहता है, जिससे वह संसार को आसानी से त्याग नहीं सकता जबकि भक्ति-मार्ग में केवल
परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य में आसक्ति रहती ही नहीं है | इसीलिए ज्ञान-मार्ग
से भक्ति-मार्ग पर उपलब्धि आसानी से प्राप्त होती है | ज्ञान की सबसे बड़ी कमी एक
ही है, वह है अहंकार, सब कुछ जान लेने का अहंकार |
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ.प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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