ज्ञानं लब्ध्वा परां
शांतिम् – 2
मनुष्य जीवन के बाद मिलने वाली नयी योनि का
आधार इन कर्मों से प्राप्त होने वाले भोग ही हैं, जो नए जीवन में, उस शरीर में
उपस्थित प्रकृति की त्रिगुणात्मक व्यवस्था के माध्यम से उपलब्ध होते हैं | प्रारब्ध (Destiny) स्वरूप प्राप्त होने वाले भोगों को अन्य प्राणी तो
केवल अपने पूर्व मानव-जन्म के
कर्मों को भोग लेता है परन्तु मनुष्य उन्हें भोगने के साथ-साथ उनमें पुनः आसक्त (Addicted) भी हो जाता है | प्रश्न यह उठता है कि उन कर्मों, गुणों और विषयों में
केवल मनुष्य ही क्यों आसक्त हो जाता है और अन्य प्राणी क्यों नहीं हो पाते ? जितना प्रश्न कठिन प्रतीत होता है, उत्तर उतना ही
सरल है | मन (Mind) और बुद्धि (Intelligence) का कार्य क्षेत्र अन्य प्राणियों में सीमित (Limited) रहता है, जो उन्हें कर्म, गुण और विषयों में आसक्त होने से दूर रखता है, जबकि मनुष्य में यही बुद्धि सदुपयोग न करने से उसके लिए अभिशाप बन जाती है |
हम लोग प्रायः बुद्धि (Intelligence) और ज्ञान (Knowledge) को समानार्थी शब्द मान लेते हैं, जबकि दोनों
भिन्न हैं | बुद्धि में ज्ञान समा सकता है, परन्तु अकेला ज्ञान बुद्धि के बिना
व्यर्थ (Useless) है | बुद्धि
इस भौतिक शरीर के अन्य जड़ तत्वों की तरह ही एक जड़ तत्व है, जबकि ज्ञान बाह्य है और
शरीर में केवल बुद्धि ही उसको ग्रहण (Receive) कर सकती है | बुद्धि के अतिरिक्त इस भौतिक शरीर का कोई भी तत्व ज्ञान
ग्रहण करने योग्य नहीं है | बुद्धिमान पुरुष (Intellectual) ही ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता रखता है |
बुद्धि का विकास ही मानव को अन्य
जीवों से अलग करता है | बौद्धिक क्षमता (Intelligence capacity) का अर्थ है, आप इस बुद्धि का उपयोग किस प्रकार से
करते हैं ? बुद्धि का होना, ज्ञान प्राप्ति के लिए तो आवश्यक है परन्तु ज्ञान को
आत्मसात कर उसका उपयोग करना आपकी बौद्धिक क्षमता पर निर्भर करता है | बौद्धिक
क्षमता का अल्प रूप में होने का अर्थ है, ज्ञान का सही उपयोग नहीं हो पाना | अतः
बुद्धि के साथ-साथ बौद्धिक क्षमता का होना भी आवश्यक है | आइये, सर्वप्रथम हम
बुद्धि के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर लें |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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